कहीं कुछ
किसी किनारे पर कोई
कमी अब भी लगती है
काग़ज़ों के बीच उठती
कई नज़र अब भी तांकती हैं
कदम दौड़ते तो बहुत हैं
सहमे पदचापों की आवाज़
अब भी सबकुछ रोक देती है
किसी किनारे पर खामोश
कोई साँस अबभी तेज़ बढ़ती है
बोल न पाऊँ सामने जिसके
वो आवाज़ खोई सी लगती है
बात तो सबसे होती है बहुत
ख़ामोशी मे जो सब बोल जाय
उस परिन्दे की कमी सी लगती है
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