रात परेशान है
रंगीन हो गये हैं जो
जहां अपना बेरंगकर
ख़ुशियाँ बिखेरने वाले
अब ख़ानाबदोश हैं
महफ़िलों की भीड़ में
हर शख़्स तन्हा है
अपनेपन के मुखौटों वाले
अब नदारत हैं
पहाड़ों की उतरती धूप में
अलसायी सी बेल है
सौंधी ख़ुशबू लिए
वो बरखा विहीन है
आँखें करती इन्तज़ार हैं
थकी हुई एक शाम में
धूप पहाड़ों की चढ़ने को है
और रात फिर परेशान है
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