दो छौर
वो दीवार पर चिपका रहा
कि पत्थर ही बन गया हो
अमूर्त सीने की वो धड़कन
साँसों की गहराई नापती है
वो नज़र झुकाये ही रहा
कि मूर्ति सा बन गया हो
काँपते अधरों की बैचेनी
सदियों के इन्तज़ार सी है
वो दूरियों मे ही सदैव रहा
आँखों या अपनेपन की हों
निहारती पलकों की थकन
उस नदी के दो छौरों सी है
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