मधुरिम प्रीत
कभी वो परायापन
फिर तेरा अपनापन
डगमगाता ही रहा
‘टूख’ पर अटका मन
किताबों के सूखे फूल
स्मृतियों की मधूर धूल
ताज़े से लगने लगे
मन को घेरे कुछ शूल
सम्बन्धों की स्वर्णिम रीत
रचते बसते स्वरचित गीत
कुछ अपनी सी लगने लगी
अपनो सी वो मधुरिम प्रीत
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