मक़ाम
वक़्त खटखटाता रहा द्वार
पर तु अभी तक न आया
कौन जाने मुहाने पर खडा
वक़्त फिर सबकुछ मिला दें
दिनों से सुनने को बेक़रार
क्या पता कि तु कह जाये
कौन जाये परायों के शहर में
कोई फिर नया मक़ाम हो जायें
ख्वाइशों के उँचें पड़ाव की
कोई कड़ी शेष न रह जाय
कौन जाने तेरी दुवाऐं साथ हो
और फिर कोई गाँव बस जायें
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