जाने को था
सुना था अचानक वो जाने को है
शहर ये भी विरान करने को है
दर्द ढुढता रहा अपनेपन के निशाँ
वो आधा अधूरा सफ़र ही रहा
हुआ था अनायास अहसास भी
वो असर झुकती नज़रों का ही रहा
कदम ढुंढते रहे मंजिल के निशाँ
वो बनता बिगड़ता मकां ही रहा
चला था बहर जो यादों की देकर
वो कुनवे में हरपल ही शामिल रहा
मिटते उतरते गये रिश्तों के निशाँ
वो मन का कोई ख़्वाब सा ही रहा
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