जब सीमित हुआ
नीड़ की छांव में
यादों की देहरी पर
एक गाँव बसता सा लगा
तेरा दायरा बढ़ सा गयाखुद को जब सीमित किया
झुरमुटों की ओट में
सफ़र की थकान पर
ख़ानाबदोश मन बह चला
तेरा जिक्र अनजाने में हुआ
खुद को जब सीमित किया
पोथियों के बीच में
वर्तनी के हर अंश पर
एक दौर फिर चल निकला
तेरा नाम लिख लिखता रहा
खुद को जब सीमित किया।
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