ज़िद

रिश्तों की कमजोर नींव पर
ये जो सीमित संवाद है
ज़िद उसे बचाने की है 
जिससे हर बार हारना चाहा 

सरहदों की ख़ून होती मुढेंरों पर 
ये जो अधधुले पदचाप हैं 
ज़िद उससे जोड़ने की है 
जिसने हर बार तोड़ना चाहा 

स्नेह की सूखती नदियों पर 
ये जो विश्वासों के तटबन्ध हैं 
ज़िद उसे रोकने की है 
जो कब का छोड़कर चला गया 

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