तुझ तक
वो धूप शहर की तुझ तक थी
वो शाम सुहानी तुझ तक थी
किताबों के ढेरों के पीछे
वो नज़र झुकती तुझ तक थी
वो चाह अपनेपन की तुझ तक थी
वो शर्म हया भी तुझ तक थी
रह गयी जो बात अनकही
वो दबीं भावना तुझ तक थी
वो बीच बहस आदत तुझ तक थी
वो बोली बिनबोली तुझ तक थी
कुछ न पाये जिससे बात मन की
वो हिम्मत जबाब देती तुझ तक थी
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