हलाहल
जाया कहाँ जाता है पहाड जब भी बुलाते हैं
सब तो तेरे जैसे हैं मन में हैं पर दूर बहुत हैं
कठिन कब था कोई भी चोटी जीत जाना
बढ़ते कदम थे हरदम पर साथ न पहचाना
ढलान पर लुडकते पत्थरों ने कहा था कभी
बढ़ तो जाओगे पर लौट ना पाओगे कभी
उस नदिया सा स्वच्छन्द फैलता तो रहा
तेरा समुन्दर मेरे अस्तित्व को चुनौती दे गया
लगता है मथना होगा तेरे समुन्दर को फिर से
मैं हलाहल लिए फिर लौट जाना चाहता हूँ
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