जब भी

जब भी चली सरी ठौर समुन्दर 
उतर कर पहाड़ों की पगडंडी से 
पहचान धुली मन अपक्षय होकर
बिसरी गयीं कभी जो अर्चित थी

जब भी पहचाने लोग अजनबी
अपने रिश्तों की ताबिरों से 
द्वन्द बीच रहा मन संस्कारों के
खो गयीं पहचान समेटी सी 

जब भी पुष्प को छूना चाहा 
कुछ काँटों ने हाथ छिलें हैं
लम्बा रहा है संघर्ष जीवन का
तु भी है उस सब परिपाटी सी 

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