जागना है

जब भी हारा हूँ खुद से तो ऐसा लगा
जानता ही नही जो मुझमें है अजनबी 
जब भी सुनी पडी सोच की बस्तियाँ 
खुद को देखा है तिल तिल सा मरते हुए 

जब भी खामोश थी मन की जादूगरी
हौसलों की नदी तब तो थमती लगी 
जब भी मन दौड़ आया पहाड़ों के पार
खुद को सोचा तो तन मन की शक्ति नही

जब भी बन्द सी लगी मंज़िलों की डगर
चाल धीमी रही ढाल बढ़ती गयी 
तब भी मन ने जगाया है मन मार कर
अब भी जागेगा मन है हिमालय वहीं 

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