उँची सी आशायें
ये जो ऊँची सी आशायें हैं न!
वहीं तो रिश्तों की निशानियाँ हैं
‘नींव का पत्थर’ रहूँ मैं
तेरे बुलन्दियों के जहान की
ये जो गुमशुम सा लगाव है न!
वहीं तो मर्यादाओं की सीमा हैं
जुड़कर तुझसे रहूँ मैं
सीमा तेरे स्वच्छन्द आकाश की
ये जो अपनापन छूटता नही न!
ये उन गुस्ताखीयों की माफ़ी हैं
ग़लतियाँ भूल न सकूँ मै
सच्चाई लिए उस शालीनता की
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