निशाँ
जब भी मन से लगा दौड़ लूँ पास तक
तु दिखाता रहा दूरियों के निशां बर्क बिखरी रही फिर भी सुखा रहा
मन रंगाता रहा छिट के दो निशाँ
लौट जाने पे सूनी सी बस्ती रही
तु बुझाता रहा दीप के सब निशाँ
चाँदनी थी कहीं फिर भी स्याही रही
मन जगाता रहा रात के वो निशाँ
खोली खिड़की कही साँझ के आस की
तु दबाता रहा आस के सब निशाँ
खाली कोनों मे ढूँढा जिसे हर पहर
रात आयी बहा ले गयीं सब निशाँ
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