शाम लगी है
जब भी बादल घिर आये हैं
यादों के मंजर लौटे हैं
बरखा की बूंदें तरसाती
तेरे जैसी शाम लगी है
अब भी पंख पखेरू चुप थे
अलसायी बेलों के नीचे
चिड़ियों ने चहचाना छोड़ा
कोलाहल सी शाम लगी है
जब वो उत्स गिरे थे धरा पर
निष्ठुर मन पर चोट लगी हैं
नदियों ने बहना तब छोड़ा
हिमगिरि पर जब शाम लगी है
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