जब भी
जब भी यादों के कोनों से कुछ झुरमुट झर्रायें हैं
हँसता है कोना वो घर का जो अब भी समेटे तुझको है
जब भी बातों के तानों से कुछ शंकायें जन्मी हैं
हँसता है कोना वो मन का जो अब भी समेटे तुझको है
जब भी रास्तों के काँटों से कुछ खरोंचे चुभती हैं
हंसतीं है पीड़ा वो मन की जो अब भी समेटे तुझको है
जब भी निगाहें मन पर कोई घाव बनाती जाती हैं
हँसते हैं वो खाली कोने जो अब भी समेटे तुझको है
जब भी खाली दरवाज़ों पर कुछ आवाज़ें लगती हैं
हँसती है आशायें मन की जो अब भी समेटे तुझको है
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