वो चंदा सी लगती है

 

सुनी शाम सुबह महकी सी 

हर पल मन में रहती है 

चुप रहती है आध रात सी 

कलकल नदिया बहती है 


दूर खड़ी वो मृगतृष्णा सी 

पास बुलाती रहती है 

कर देती है टूख पर मुझको 

नींव बनी ही  रहती है 


उग आती है तुलसी बनकर 

घर आँगन महकाती है 

आसमान सी दूर बहुत है 

वो चंदा सी लगती है 

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