वक़्त लगा

 

मैं नदिया टेढ़ी-मेढ़ी थी 

शांत समुन्दर बुला रहा था

वक़्त लगा मिलने में जिससे  

मंजिल उतनी अदृश्य नहीं थी 


आलिंगन जब मन का हो तो 

कुछ शब्द अधूरे रहते हैं 

वक़्त लगा कहने में जिससे 

स्पर्श सदा अहसासों का था 


मन जब डर के हद को छू लें 

खुद में खुद को कब पता है 

वक़्त लगा दिखने में जिसको 

वह परछाई भरी दुपहर थी 

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