वो आँखे
चुप रहती थी, कुछ कहती थी उठ झुक शरमा जाती थी
हर किस्से हर बात पे मुझसे अनकही कहानी कहती थी
वो आँखे बोलती थी
नटखट थी ख़ामोशी की, जता बहुत कुछ जाती थी
हर रिश्ते में मुझसे जुड़ती गीत ग़ज़ल लिखवाती थी
वो आँखे बोलती थी
सुनती थी औरो की सबकुछ अर्जी मुझको दे जाती थी
ना जाने ना सुने बिना ही दोषी मुझको ठहराती थी
वो आँखे बोलती थी
छुपी किताबों से रहती थी पढ़ती मुझको रहती थी
हर ताने हर शब्द पे मुझसे बदला लेते दिखती थी
वो आँखे बोलती थी
डबडब करके भर आयीं थी छल छल छलका जाती थी
तोड़ गयी सारे रिश्तों को नज़र चुराती दिखती थी
वो आँखे बोलती थी
सावन भिगो गया है फिर से बरखा मोती लायी हैं
जोड़ रही है अब तारो को क़ालीन बनाती दिखती हैं
वो आखें बोलती हैं
कुछ थमी हैं कुछ बही हैं पास वो आते लगती हैं
रचा रही यादों के पुल पर मन संगम सा बनाती हैं
वो आखें बोलती हैं
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