एक दीप बन जलाता रहा
जो सहज थे जो सरल हैं शुद्ध तन-मन-प्राण हैं
वो रहे शर्तो से बाहर मन के वो अभिमान हैं
वो हिमालय है मेरा जो वो ही गंगा तट रहा
हर समय की साख पर सांसो को वो थामे रखा।
जो पास हैं जो साथ हैं जो त्याग के प्रतिरूप हैं
वो रहे पाने से बाहर मन के तय सा मोक्ष हैं
वो ज्ञान का आलय है मेरा वो ही मन का दान है
हर पहल की लौ पे वो एक दीप बन जलाता रहा ।
जो मेरे गीतों में है कविता में है रस छंद सा
वो रहे शब्दों से बाहर मन के अंतिम मौन हैं
वो शिवालय है मेरा जो वो ही मन मूरत रहा
हर कदम के नाप पर दूरी को कम करता गया ।
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