मंजिल रही सदा
जो बहा है एक आँसू इस जीवन को सोच कर
हर मूल्य से भी बढ़कर एक जीवन दिया उसने
उस आखिरी मकां का दिनकर रहा सदा से
हर राह की कहाँ तक मंजिल रही सदा से
जो लगा है मन हृदय से इस जीवन को सोच कर
हर ख्वाब से भी बढ़कर एक ज़ेबा दिया है उसने
हर आखिरी बजु का अनुनय रहा सदा से
हर चाह की कहाँ तक मंजिल रही सदा से
जो क़रार कर गए हैं इस जीवन को सोच कर
हर आमोद से भी बढ़कर एक ध्येय दिया है उसने
हर आखिरी आकांक्षा का अनुग्रह रहा सदा से
हर कल्पना की कहाँ तक मंजिल रही सदा से
एक सोच का हैं नाता घरती की पीड़ मन में
इस बार भी वैदेही क्या धरती समां रही है
तू ब्रह्म वेग गंगा भगीरथ सी संकल्पना है
मैं देव तो नहीं हूँ पर आराध्य शिव सदा से।।।
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