चाहत
चाहत थी जो दबी सी कहीं
वो जो बीज रहा फलता ही गया
साजन से जो कहीं न गयी
उसको जग ने हर राह कहीं
आंसू बहा गयी प्रेम मै जो
उस चाह को भी तो भूला नहीं पाए
कागज़ मै जो रहे हर वक्त
प्रेम वो भी जाता नहीं पाए
कागज़ देकर आप चले
हम कागज़ मन से हटा नहीं पाए
कागज पर लिखते रहे हम
चाह कभी हम पढ़ नहीं पाए
घूमते थे जग के हर कोने
उस मूरत तो मन से हटा नहीं पाए
आखों मै थी एक मीरा बसी
किसी और को हम बसा नहीं पाए
चाह नहीं थी ये सोच कोई
बस होता गया हम रोक न पाए
श्याम खड़ा था जो संग मेरे
ब्रजरानी की आस छुड़ा नहीं पाए
चाह मिली आशीष रहा कोई
दूर हिमालय से डमरू बजाये
थी वो नसीब मै चाह तेरी
कोई मंथरा कोप सजा नहीं पायी
पाऊ तुझे या की खो भी जाऊ
भूलने की अब राह नहीं है
बांसुरी वाला है साथ मेरे
मेरी चाह को कोई डगा नहीं पाए
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