इस कोरे से जीवन
समझाया खुद को बहुत जरा पूछे प्रश्न हज़ारों हैँ
हर बार दिया है उत्तर मन ने वो आधा मेरा सपना है
आधे मन की आवाज़ रही है अमरत्व का साथी है
थोड़ा मुझमे घुला हुवा है थोड़ा सा अभी बाक़ी हैँ
वो जो ऊँगली थामे था खुद की खुद के मंगल फेरों पर
कहता है मैं निडर बड़ा तू क्यों देवदास इस जीवन का
हाथों की लकीरों को छुआ है उन हाथों ने
शेष समर है रिश्ता अपना इस कोरे से जीवन का
वो जो खड़ा रहा पहाड़ सा खुद के दायित्वों के खेमों पर
कहता है मैं शश्क्त बड़ा हूँ तू क्यों है दुर्बलता जीवन की
ठोस मनों के आँसू देखे सम्भले से उस यौवन के
शेष अनंत है पीड़ा अपनी इस कोरे से जीवन की
वो बेहोश हुआ खुद, खुद से खुद के समर्पण पर
कहता है मैं स्वतः बढ़ा हूँ तू क्यों हों आश्रय जीवन का
दर्पण में चेहरा देखा है नजर मिलाते नजरों से
शेष आलेख्य हैँ दर्द अपने इस कोरे से जीवन का
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