बैठा है पत्थर बन

 

मैं मीलों दूर आया हूँ कागज़ की नावों पर 

मेरा मांझी भी मुझसे युहीं बैठा हैं खफा होकर 

वही आशा के बादल हैं जो बरखे सूख जाते हैं

कभी धरती लगी खिलती कभी आशाएँ बहती हैं 


मैं राही दूर आया हूँ बिना मीलों के पत्थर के 

मेरा खाविंद भी मुझसे युहीं बैठा हैं ख़ामोशी में 

वही गर्जन है बिजली की अभी तो बर्क बिखरी है

कभी धरती की पीड़ा है वही चीरती सी मिटटी है 


मैं खाली हाथ आया हूँ बिना कोई चढ़ावे के 

शिवालय भी मेरा मुझसे युहीं बैठा है पत्थर बन 

वही है प्यास पपीहे की वही क्रुन्दन है सपनों का 

कभी कोशिश है उड़ने की ये चिड़िया बिलबिलाती है 

Comments

Popular posts from this blog

कहाँ अपना मेल प्रिये

दगडू नी रेन्दु सदानी

छात्र कल्याण: (Student' Well- being) केवल शब्द नहीं, एक वास्तविक जिम्मेदारी