अमूल्य कर गयी
दिनभर लाखों बहाने है काम के आज भी
पर तेरे हिस्से की रात खाली गुजरती है
रातों को छोटा करती वो लम्बी बातें
दिनों को हफ्ते में बदलकर अमूल्य हो गयी
लाखों बहाने हैं खुश रहने के यूँ तो
पर तेरे हिस्से की मुस्कान छुपी सी रहती है
कुछ न कहती रोग अवरोधक बनती वो बातें
हफ्तों को महीने में बदलकर अमूल्य हो गयी
लाखों बहाने हैं दुनिया से दूर रहने के
पर तेरे हिस्से का एकाकीपन मन बस गया
खुद से खुद को मिलती वो तन्हाई
बरस को सालोँ में बदलका अमूल्य हो गयी
मिलना बिछुड़ना रीत रही है जग की
वो छोरों पर खड़े जीवन को अमूल्य कर गयी
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