ज्वार मनों के
रात रात भर तुझको लिखा बरसों से यूँ साथ रहा
आस जगायी तोड़ भी दी कभी कभी मन को यूँहीं मार दिया
इस जंगल जो आग लगी है पुरवा ने फैलाया है
सावन की रिमझिम बौछारें भिगो गयी कभी बहा गयीं
राह राह भटका है मन ये घट घट ठोकर खायी है
नदी उफनती रहा है दर्शन बरसाती से नालों सा
अपने तट पर घाव किये और फैलाया जीवन को है
इस पयोधि का जो खारापन है उन आसुओं ने बढ़ाया है
ज्वार मनों के उठे जहाँ भी लहरों से यूँ दूर हुआ
पत्थर पत्थर टकराया मन ये घुट घुट आंसूं पीये हैं
तरंग तरंग हिलोरे खाता छलक छलक छलका है मन
अपने को तुझमे बिसराया और समाया जीवन को है
रात रात भर तुझको लिखा बरसों से यूँ साथ रहा
आस जगायी तोड़ भी दी कभी कभी मन को यूँहीं मार दिया
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