कोरी गहरी प्रीत
कहाँ सपनों में कोई दीन आता है
तभी तो प्रीत पूँजीवाद का पर्याय है अक्सर
जिन्होंने माँगा था सर्वस्य समर्पण जहान में सारा
वोही जन आम से बनकर प्रतिष्ठा पा गए सारी
कटी अंगुली पर धागा भी दरबारों की लाज बचता है
कटी उंगुली ही राज्यों को यहाँ बनवास दिलाती है
जो रहे हैं सदा अविचल अपनी प्रतिज्ञाओं पर
वोही जन बन गए स्तम्भ मर्यादा के पालनहार बनकर
किसी ने चरण धोये तो कोई झूठन भुला बैठा
कोई छाती बसा बैठा कोई चरणों में जा बैठा
वो जो सर्वस्व न्यौछावर थे वो पत्थर भी तरा बैठे
वोही जो सरल सच्चे थे सनातन प्रीत कर बैठे
चलो हम पूँजीवादी की अवसरता को ठुकरा बैठे
बन जाए वो बन्दर भी और प्रत्याशा को तरा बैठे
कभी शबरी की कुटिया हो कभी टूटी नाव केवट की
चलो हम बस मनो की कोरी गहरी प्रीत कर बैठे
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