मेरा भी हक़ है
शहर तुम्हारे आवूंगा सौंधी मिट्टी संग लिए
जम जाना तेरी राहों में मेरा भी हक़ है
नदियों संग बह आवूंगा राह मुसलसल एक बने
मिल जाना तेरे सागर से मेरा भी हक़ है
कुञ्ज गली से निकल कहीं चौड़ी सड़को पर दौडूंगा
खुशबू फैलाऊँगा सरसों की मेरा भी हक़ है
धुनि रचाये देवों को थाल सजाकर पूजूँगा
तेरे दरबारी गणेशों पर मेरा भी हक़ है
हर रिश्ते की मर्यादा में साथ समर्पण प्यार रहे
अनजान अधूरे सपने पर मेरा भी हक़ है
मीलों फैले जंगल छोड़े खेत हरे खलिहानों को
दो गज टुकड़ा शहर तुम्हारे मेरा भी हक़ है
शांत रहे आश्वासन मन के दबा रहा स्नेह सदा
तेरे शोर भरे बाजारों पर मेरा भी है
या तू मुझको शहर बना दे या गांव मेरे बस जाना तू
तेरे साथ की चन्द शामों पर मेरा भी हक़ है
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