कड़वे से शब्द
नकाबों में कहा जिया
कहाँ मन में रखा कुछ भी
परख उसकी हार है मेरी
कड़वे से शब्द कह दिए मैंने
कोई सीमा कोई दुबिधा
मैं अपनों में नहीं रखता
जो पनपी थी शंका मन में
उससे खुलकर कहा मैंने
नसीबों में कहाँ पाना
मैं सब खोकर ही रहता हूँ
एक मैं ही हूँ समय बाधा
उसने सहमे से जताया है
अदृश्य ही है मंजिल अब भी
मैं उन राहों से गुजरता हूँ
एक मैं साथ चलने की जिद्द में
उसने चुपके किनारा पकड़ा है
सफर यूँ तो अधूरा है
मुझे अहसास है हर दिन
कभी तो चाँद चमकेगा
वो मेरे भी छोर आएगा
Comments
Post a Comment