अधूरी शाम
अधूरी शाम रह जाये कोई उम्मीद जैसी है
बिखरे मोती की माला मैं बरसों से बनता हूँ
वो जुगुन मैंने ओखल में छुपाये हैं कई छलनी
अँधेरी रात जगने की मुझे आदत है बरसों से
किसी का मन न पढ़ पाऊँ सबकी अपनी दुनिया है
मेरी छोटी सी दुनियां को मैं बरसों से सजता हूँ
वो तारों को निहारा है हमेशा सर्द रातों को
मेरी रातें सदा लम्बी मुझे आदत है बरसों से
जिन राहों चला बरसों वो मजिल तक नहीं जाती
आधा ही सफर जीवन आधा एक रिश्ता हूँ
वो चिड़ियों को उड़ाया है सदा से बंद कमरों से
मैं खुद के पंख काटा हूँ मुझे आदत है बरसों से
दिनों के इंतजारों को पलों में छोड़ जाता है
उन्ही रातों अकेले फिर सफर पर चाँद रहता है
न जाने क्या नसीबों में अधूरी अनकही बातें
मैं खुद से बात करता हूँ मुझे आदत है बरसों से
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