नसीबों का खेल
वो जो अपना है
सदा अराअरी में रहा
भावनाओं का कोई मोल नहीं
वो औरों की तीमारदारी में रहा
वो जो चितचोर है
सदा मुसाफिरी में रहा
शाम से पावड़े बिछाये हैं
वो औरों की टहलबाजी में रहा
वो जो पराया है
सदा अपनों में ही रहा
बरसों सजाते रहे सपने जिनके
वो हमको हर बार बस आजमाता रहा
ये नसीबों का ही खेल है
सदा आधा अधूरा ही रहा
किसी को नसीबों से मिला वो शख्स
जिसे मैं हाथों की रेखाओ में ढूंढ़ता रहा
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