आत्मा का बंधन
धुनि रमाये इंतजार की
उमड़ती बरखा साथ लिए
आत्मा का बंधन कर बैठा
जग के सब संताप लिए
उमड़ती बरखा साथ लिए
आत्मा का बंधन कर बैठा
जग के सब संताप लिए
एक परीक्षा खुद में देता
प्रश्न समान्तर मन में लिए
मांग संदूरी रची है जिसकी
उसके हर अहसान लिए
टुकड़े टुकड़े जीता जीवन
निभती कोई साँस लिए
हाथ पकड़ जो साथ चले हैं
उनसे ही हर आस लिए
छोर नहीं इस डोर का कोई
फिर भी सपने साथ लिए
जाने कब तक साँस चले
कब रिश्ते सब गुमनाम लिए
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