बैध अबैध
खुशियां गांठे बांधकर ले आगोश समाय
दरकता सा पहाड़ हूँ खिसकता सा रह जाय
दरकता सा पहाड़ हूँ खिसकता सा रह जाय
सांसों से पोथी लिखी मन समझा न पाय
शिलालेख आवत गढ़ी अक्षर समझा न पाय
छुपी हुई संभावना , पास समुन्दर आय
आशाओं का आसमा फैलाये मिल जाय
लिपटी चिपककर सी गयी एक खुशबू मन समाय
अहसासों की ओढ़नी दे अपनेपन की शाम
मन्नतों के द्वारों पर एक अरज हमारी जाय
शांति लिखे तो शोर में मन आलाव जलाय
वैदेही के स्वयम्बर सा धनुष तोड़ न पाय
आशाओं के सफर पर प्रयास लिए सजाय
नीड की हर एक कल्पना , अधिरथ रहती जाय
मन गूढ़ता का भाव सा अब लक्ष्य भेद न पाय
सावन को चिट्ठी लिखी फूलों का इंतजार
बरबस यादें मन बसी ऊँचे पहाड़ समाय
ख्वाइशों की नाव पर डगमग पैर चढ़ाय
रेत सिमटी मंजूरी हाथ सरकती जाय
अनकही सी पीड़ का मनवा बलबल जाय
रुन्धती आवाज़ रही हाथ कांपते जाय
बैध अबैध जो एक है रोम रोम बस जाय
साथ समर्पित एक सा मैं मुझमे मिल जाय
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