मन तुझ तक
शाम थकी सी लगती है
तुझ बिन सुनी लगती है
सूरज राहें तकता है
ये मन तुझ तक जाता है
चाय अधूरी ठ़डी है
कागज कुछ अलसाये हैं
सोच वहीं पसर जाती है
ये मन तुझ तक जाता है
बच्चों की किताबें हैं
चलचित्र सा जीवन है
वक्त वहीं पर ठहर जाता है
ये मन तुझ तक जाता है
अधूरे से कुछ सपने हैं
कम्बल बाँह पसारे हैं
आँख वहीं पर लग जाती है
ये मन तुझ तक जाता है
रात कहीं घनघोर हुई है
दो पहर कहीं पर बीत गये है
जब बेबस सपने होते हैं
ये मन तुझ तक जाता है
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