राख

साथ गहराता अन्धेरा हर समय चलता रहा
मर चुका जो मन चिता की राख को मलता रहा
पुण्य के कुछ काम जो अंशों में किये उधार हों
अब फना हर उम्मीद हो साथ खामोशी रहे
गुनगुनाऐं गीत जो कर्कश लगे गढते रहे
मैं कल्पना के झाड़ पर धधकती सी आग हूँ
जलता सा शहर हूँ विरान सा शमशान हूँ
बरसों की लुकाछिपी और तन छोडता सा प्राण हूँ

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