सुहानी शाम फिर कहीं

 नयीं कोपलों की आस में 

कुछ उत्स तो गिरे कहीं 

तु हो सके तो पुकारना 

वो निशानी छाप फिर सही 


गहरी चाहतों की आढ़ में 

वो समय तो बहा कहीं 

तु हो सके तो समेटना 

वो बाँह भर भी ले सही 


अधूरे सपनों के छोऱ में 

वो स्नेह गहराया कहीं 

तु हो सके तो बिखेरना 

वो खुशबू साँस हो कहीं 


कुचले से कुछ मक़ाम में 

वो बीज फिर बढ़ा सही 

तु हो सके तो उड़ेलना 

वो कोमलता बचे कहीं 


हर रात दिन जो पास है 

अपनों में वो गिना सही 

तु हो सके तो बाँट ले 

एक सुहानी शाम फिर कहीं 

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