उनसे जुड़ती रही

आसमां की चाह किसको
मै धरा पर ही चला हूँ 
रास्ते जो अनभिज्ञ थे 
मंज़िलों तक ले चले

मीत के क़िस्से कहाँ 
मैं दोस्त तक सिमटा रहा
रिश्ते जो बन न पाये
सम्मानों के शिखर छू गये

साथ चलता कौन यहाँ 
मैं एकाकी बना रहा
लोग जो रुक न पाये
दूर तक भी अपने लगे

कुछ भी तो अपना था कहाँ 
मैं कुछ समेटा ही नही 
स्मृतियाँ जो घर कर गयी
उनसे जुड़ती ही लगी 

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