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Showing posts from November 10, 2019

प्रतीर पर रहा

ग़ैर ही थे ग़ैर ही रहे  बहती नयार का तय था रास्ता भी  प्रतीर पर छपछपाना  आरज़ू नही स्वभाव रहा  साहिल उम्मीदों की रही न रही मनों के तार बँधते रहे  कहने को बहुत था मनो के मूक संदेश चुपचाप पहुँचते  रहे  शुरु कोई कर न सका ख़त्म सब हो न सका  जताने को बहुत था  एकाकी मनों के अहसास  गुमनामी मे बढ़ते रहे 

रात परेशान है

रंगीन हो गये हैं जो जहां अपना बेरंगकर  ख़ुशियाँ बिखेरने वाले अब ख़ानाबदोश हैं  महफ़िलों की भीड़ में हर शख़्स तन्हा है  अपनेपन के मुखौटों वाले अब नदारत हैं  पहाड़ों की उतरती धूप में  अलसायी सी बेल है सौंधी ख़ुशबू लिए वो बरखा विहीन है आँखें करती इन्तज़ार हैं थकी हुई एक शाम में धूप पहाड़ों की चढ़ने को है  और रात फिर परेशान है 

सर्वस्व

कुछ बातें अधूरी   छोड़ना ही अच्छा  कुछ ख़्बाव अधूरे  ही रखना अच्छा मैं मुतमइन था  हर  अनकही बात पर कुछ बातों को मन  में रखना ही अच्छा  कुछ सीमान्त दायरों  में  बँधना ही अच्छा  कुछ निष्कर्षों पर  न पहुँचना ही अच्छा  ये तय था हर  मक़ाम पर ऐ! ज़िन्दगी  कुछ यूँही पा जाना  फिर सर्वस्व हार जाना 

चुपके कुछ कहा नही

यूँ तो भूलने के कगार पर  वो रास्ते जिनपे चला नही वो डगर रही खामोश ही  जो साथ थी बड़ी नहीं  यूँ तो दूरियों का गिला रहा वो दरिया पास आया नही  वो ग़ुबार जो उठता ही रहा कभी मन की सीमा में बहा नही  वो सच्चाई का यूँ आलम रहा  कभी झूठ साथ चला नही   यूँ तो ठौर पर ही रहा मगर  कभी चुप के कुछ कहा नही.  

कहीं कुछ

किसी किनारे पर कोई  कमी अब भी लगती है  काग़ज़ों के बीच उठती कई नज़र अब भी तांकती हैं  कदम दौड़ते तो बहुत हैं सहमे पदचापों की आवाज़  अब भी सबकुछ रोक देती है  किसी किनारे पर खामोश  कोई  साँस अबभी तेज़ बढ़ती है  बोल न पाऊँ सामने जिसके  वो आवाज़ खोई सी लगती है  बात तो सबसे होती है बहुत ख़ामोशी मे जो सब बोल जाय उस परिन्दे की कमी सी लगती है