Posts

Showing posts from August 29, 2021

अधूरी शाम

 अधूरी शाम रह जाये कोई उम्मीद जैसी है  बिखरे मोती की माला मैं बरसों से बनता हूँ  वो जुगुन मैंने ओखल में छुपाये हैं कई छलनी  अँधेरी रात जगने की मुझे आदत है बरसों से  किसी का मन न पढ़ पाऊँ सबकी अपनी दुनिया है  मेरी छोटी सी दुनियां को मैं बरसों से सजता हूँ  वो तारों को निहारा है हमेशा सर्द रातों को  मेरी रातें सदा लम्बी मुझे आदत है बरसों से  जिन राहों चला बरसों वो मजिल तक नहीं जाती  आधा ही सफर जीवन आधा एक रिश्ता हूँ  वो चिड़ियों को उड़ाया है सदा से बंद कमरों से  मैं खुद के पंख काटा हूँ मुझे आदत है बरसों से  दिनों के इंतजारों को पलों में छोड़ जाता है  उन्ही रातों अकेले फिर सफर पर चाँद रहता है  न जाने क्या नसीबों में अधूरी अनकही बातें  मैं खुद से बात करता हूँ मुझे आदत है बरसों से 

सुहानी शाम फिर कहीं

 नयीं कोपलों की आस में  कुछ उत्स तो गिरे कहीं  तु हो सके तो पुकारना  वो निशानी छाप फिर सही  गहरी चाहतों की आढ़ में  वो समय तो बहा कहीं  तु हो सके तो समेटना  वो बाँह भर भी ले सही  अधूरे सपनों के छोऱ में  वो स्नेह गहराया कहीं  तु हो सके तो बिखेरना  वो खुशबू साँस हो कहीं  कुचले से कुछ मक़ाम में  वो बीज फिर बढ़ा सही  तु हो सके तो उड़ेलना  वो कोमलता बचे कहीं  हर रात दिन जो पास है  अपनों में वो गिना सही  तु हो सके तो बाँट ले  एक सुहानी शाम फिर कहीं 

बंधन मंथन तुझसे है

 एक अदना सा मुसाफिर हूँ  सफर में साथ तेरे हूँ  मैं ठूठों सा खड़ा राहों  तेरे कदमों का साया हूँ  एक खाली सा मकां हूँ  आशंसा आस तेरा हूँ  मैं साजों सा बजा बरसों तेरे गीतों का जाया हूँ  एक अधूरा ख़्वाब सा हूँ मैं  प्रीत की रीत तुझसे है  मैं रेती सा बहा दरिया  तेरे दोआब का बांधा हूँ  एक रिश्ता विश्वास का हूँ  बंधन मंथन तुझसे है  मैं खाली खंडहर सहरा  तेरी आवाज़ जागा हूँ  एक दौड़ती मरीचिका हूँ  हर प्यास आस तुझसे है  मैं खाली कुआँ गावों  तेरी बरसात भीगा हूँ  

तु मुझमें

तु एक धवल गंगा मुझमें  बहता जल निर्मल उसका पत्थर था मैं अङिग सदा मनरे अहिल्या बना गया काशी के घट द्वार वृन्दावन मन धाम केदार रमा गया  नश्वर था मैं ढिठ बङा  मनरे ॠषि सा बना गया  कोमल कोंपल फूल सहृदय मन आस पीताम्बर थमा गया बिन आँसू था कठोर बङा मनरे थाप मिट्टी बना गया कलम किताबें दौङ ज्ञान की मनमीत ठहराव सिखा गया  सूख खुशी आलाव ताप था मनरे ऊधौ को प्रीत सिखाया वैरागी सा मेरा मनन जीतकर कहता प्रीत मांग समय नही है  हर रिश्ते का सम्मान बांटकर मनरे खुद से बगावत करता

छुवन की कोमलता

 पल पल दिन भर मन में रहता  चादर सा तन पर ओढ़े वो  सांसों की गर्माहट तन पर  विचारों में शीतलता वो  कण कण भरता पानी जैसा  रूप स्नेह उड़ेलता वो  बाँहों की वो कसक तन पर  छुवन की कोमलता वो  रज रज जमता मन आँगन में  प्रीत शक्ति समेटता वो  आवाजों की कामुकता पर  चौखट की अर्घ पूजा वो  तम तम उगता तिमिर एक सा  आस अभिलाष बढ़ता वो  निशानों की उनमुग्दता पर  स्वर भवरे सा अभिवादन वो  मंगल सुमंगल गीत एक सा  परिणय में बांध जाता है  छोर नदी के दो किनारों पर  आत्मभाव का संपादन वो 

चुपके समेटता है

 अब भी सहमा सा रहता है  अब भी चुपके से पढ़ता है  हाथ कलम लिए फिर भी  वो अनपढ़ सा रहता है  जानता और सब कुछ है  कि खुली किताब हैं हम  तब भी संभाला बिखरा था अब भी चुपके समेटता है  गले लगाए है फिर भी  मीलों दूर  ही रहता है  कहता सांसों में सांसे देकर  कि अकेले ही काफी हैं हम  पढ़ना कौन चाहे अब  वो पन्ने फाड़ जाता हूँ  बस बचे हुए तुम ही मुझमें वो कागज मन में समाता हूँ  जानता और सब कुछ हूँ  कि चिंता तुझको रहती है  मानता मैं  सब कुछ हूँ  कि जीवन बाती तुमसे है 

साँस

 ये रातें होती हैं तुमसे  दिन चढ़ता है तुमसे  सुबह की अगड़ाई  शाम-ऐ- तन्हाई तुमसे  हर बात विचार हैं तुमसे  हर कहना सुनना तुमसे  दिन भर की जो कहानी  बात-ऐ-तन्हाई तुमसे  हर पाना खोना तुमसे  हर जीत हार है तुमसे  रिश्तो की ये कहानी  दर-ऐ-तन्हाई तुमसे  हर साँस बाँस है तुमसे  हर गद्य पद्य हैं  तुमसे  जीवन की ये कहानी  साँस-ऐ-तन्हाई तुमसे  मन पूरा भी है तुमसे  मन अधूरा भी है तुमसे  इन सांसो की साँस बाँट ले  आस-ऐ-तन्हाई तुमसे