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Showing posts from May 10, 2020

कुछ भी नही

कब भीड़ खड़ी करनी थी   कब वो मक़ाम छूनें थे विस्तार जीवन का इतना हो स्नेह की छोटी सी क़तार हो  और तु उसमें शामिल हो  कब आवाज लगानी थी  कब आँखों में रहना था  देखना दूरियों मे इतना हो  कि मीलों नज़र जायें  और वहाँ बस तु ही शामिल हो कब पा लेना  है सबकुछ कब दुनियाँ में घूम जाना था इतनी उम्मीदों की ज़मीं रहे  कि बस खो जाय कुछ तो उस खोने में तु शामिल न हो 

शाम लगी है

जब भी बादल घिर आये हैं यादों के मंजर लौटे हैं बरखा की बूंदें तरसाती तेरे जैसी शाम लगी है अब भी पंख पखेरू चुप थे अलसायी बेलों के नीचे चिड़ियों ने चहचाना छोड़ा कोलाहल सी शाम लगी है जब वो उत्स गिरे थे धरा पर निष्ठुर मन पर चोट लगी हैं नदियों ने बहना तब छोड़ा हिमगिरि पर जब शाम लगी है

तु मुडा ही नही

दायरों मे कहीं जब भी आया कोई मौन कहता गया सोच तुझ तक गयीं बीच खूँटे में लटका रहा दरबदर  मन का विश्वास है फिर भी थमता नही  ग़ैरों बनकर  कभी जब भी आवाज दी  मौन लिखता रहा याद तुझ तक गयीं अंगुलियों के निशाँ यूँ मिटता  रहा  दौर यादों का  देखा तो  थमता नही खाली कोनों से किसने नज़र फैर दी यूँ लगा पास से कोई गुज़रा सही  असर झुकती आँखों  बढ़ता गया  दूर जब से गया तु मुडा ही नही 

कशमकश

ज़मीं में धँस जाऊँ या की उग आऊँ  कशमकश है जीवन, कोशिशें कब हारी हैं खुद से संघर्ष करूँ या दूर भाग जाऊ  कश्मकश है जीवन, लडना कब मना है बढता, दौड़ता रहूँ या कि थम जाऊँ  कशमकश है जीवन, सोच कब रुकी हैं  चाहूँ न चाहूँ या कि विरक्त हो जाऊ कशमकश है जीवन, समर्पण कब हारा है रिश्ते हो न हो या कि एकाकी रहूँ  कशमकश है जीवन, स्नेह कब भूला है