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Showing posts from June 2, 2019

तू याद आया

कुछ पंख फैलाये है आज उधड़े धागो को पिरोया है भावनाओँ को एक धार दी यूँ तेरा सम्मान याद है आज रास्तो की तलाश में चला हूँ लौटने के कुछ निशाँ दिखे है संवेदनाओं को आवाज़ दी है यूँ तेरा साथ याद आया है आज ये विराम नहीं है जीवन का ये समर्पण की इंतहां भी नहीं उन घड़ियों का लेखा जोखा है यूँ तू याद बहुत आया है आज 

जद्दोजहद

कभी तारों का ज़हान था अब यादों की दुनियाँ है  मुश्किल संघर्ष है  ये द्वद  यहाँ सब निष्कृय है अब  ये नही कि लड़ न सकूँ  हालात ही तो हैं सामनें फिर ये निष्कर्ष तो तय था क्यों यहाँ अदृश्य है सब जो हारा वो जीता नही  जो जीता वो कहाँ सिकन्दर  फिर ये जद्दोजहद क्यों थी सब ख़ाली हैं यहाँ अब आश्रयों की आशाये कब थी कब एकाकी स्नेह पूरक न था   ये झोंपड़ियों के निशाँ नहीं थे सब खण्डहर सा है यहाँ अब 

रच डाली

अपनो के सम्मान के लिये चाहे अनचाहे स्नेह के लिये ‘सच्चाई’ के  समर्पण के लिए  आज मन की बंदगी रच डाली  उन गुदगुदाती सी यादों के लिए  अकेली रुलाती शामों के लिए  दिवार पर चिपटे अवशेषों के लिए  आज मन की बन्दगी रच डाली  किसी के ठिठकते क़दमों के लिए  शिकवे शिकायत की बातों के लिये मन के अपनेपन और दोस्ती के लिये  आज मन की बन्दगी रच डाली  बीते बरषों   की मीठी यादों के लिए मेरे पहाड और गौं-ग्वठ्यार के लिये  कुछ पाने खोने और संघर्ष के लिये  आज मन की बन्दगी रच डाली .....

पगली

कोई चंचल नटखट लड़की 'मन' पर दस्तक देकर जाती थी छेड़ देती थी तार दिलो के गीत प्रेम का गाती थी सखियों संग उसके ताने और आँखों से उसकी बातें पास हमारे छूकर जाना मन हिलोर कर जाती थी कह देती थी बिन कुछ बोले सबको बहरा समझती थी पगली उसकी करतूतें जो 'मन' को पागल करती थी 

क्यों मन

वो आखिरी मोड पहाड़ के उसपार जिससे आगे नज़र  नहीं जाती फिर क्यों देखना चाहता है वहां क्या कही कुछ खोया है 'मन' बार -बार ये पदचापों की आवाज़ जब कोई नहीं तो आहट कैसी क्यों बाहर आते हो बार -बार क्या कहीं कुछ सुना है 'मन' किस सन्देश का इंतज़ार है जो अभी तक आया नहीं फिर कान क्यों धरे बैठे हो क्या है जो सुना नहीं 'मन' बार बार होठों का बड़बड़ाना फिर बदन की ये अकड़न किसका इंतज़ार है तुम्हे क्यों सबकुछ लुटा जाते हो 'मन'

साथ है

सुना आकाश और मन साथ हो गए  है ख़ामोशी की रिश्ते का नाम दिया है उगता सूरज हो या ढलती शाम विराम सी हो गयीं है जिंदगी सुखद अनुभूति में तेरा अहसास स्याह रातों में भी तेरा साथ कल्पना के नेपथ्य में घूमते है अपने रिश्तो के अनकहे जज्बात तू साथ न भी दे तो क्या मंच संचालित है अब भी दर्शक दीर्घा ख़ाली है पर पात्रता अभी ख़त्म नहीं हुई 

मौसम की करवट

अब तो मौसम ने करवट बदल दी होगी भूरी धरती पर हरी चादर बिछ गयी होगी रंग उके रे होंगे फूलो ने खगों के  कलरव ने फ़िज़ा बदल दी होगी. पहाड़ो पर बिछी बर्फ  पिघलने  लगी होगी समवेत सुरों में  नदियां वादियों में गूंजने लगी होंगी इंद्रधनुष  जुड़ गया होगा आसमां से झरनों की तालो ने फ़िज़ा  बदल दी होगी . सरसों की पितिका से तीतर ने ताल सुनाई होगी खिली  कपोलो पर तितली  डगमगाई होगी  नयी साखों पर बन गए होंगे हजारों घोसले  नवागंतुकों के  शोर ने फ़िज़ा  बदल दी होगी फागुन के मल्हार में  फूलों ने कविता गायी होगी बसंती चोला ओढ़े जब धरती नाची होगी माँ तुने ढूंढा होगा तब मुझको फिर हिचकी  से अपनी, अपनेआप समझ गयी होगी

माँ हैं न

  हम सब को आजाद किया फिर पंख दिए तब उड़ने को बेफिक्र उड़े हम पार सरहदों के घर में है उजियारी  माँ दर्द  हमारा बांटती रहती अब भी सीख सिखाती है अपने दर्दो  को तो माँ फूँ क से चूल्हे में जलाती है शेखी है हमको हरे भरे खेतों की दूर पहाड़ों के उस मौसम की अहसास कहा हम कर पाते हैं ठंड से अलझायी तेरी उंगलियो  की

श्रृंखला

      जिस  भी शहर में  कदम भटकते हैं दो चार साथ हो जाते हैं  क्या कहूं कि  वो भटके  हुए हैं जो मेरे साथ साथ चले आते हैं कोई नहीं जागृत करता इनको खुद ही हाथ बढाये जाते है शायद ये उत्पीड़न से जकड़े हुए हैं जो सडको पर उतर आते है अवरोध पर उतारू अंजाम से दूर दम नहीं है पर दम लगाकर चिल्लाते हैं निहत्थे  मौत के  सामने हाथ उठाए सीना ताने चले आते हैं उतर आता है बारूद, पार हो जाता हैं सरेआम सडको पर लांशों का देर जम जाते हैं कोई आये कफ़न डाले या खूब रोले या फिर  लाश में आदमी साद जाते हैं इसी भीड़ का एक पथिक हूँ लोग समुदाय को बड़ा जाते है दिखते है असहाय उपेक्षित कुछ लोग जो स्वर  में  स्वर मिलाये जाते हैं 

माँ सोचती होगी

माँ जब भी पड़ोस की बुवा और वोह कुत्ता मेरा अचक से घर के  दरवाजे पर आते होंगे मेरी माँ के  दिल में   एक धड़कन फिर  सोचती होगी की मेरे बच्चे आये होंगे इन जड़ो की ठंडी दुपहरों में  गुमसुम छत पे गेहू सुखाती हुई  जब घर से सटे पेड़ से अनार गिर के आएंगे  माँ सोचेगी की मेरे बछो ने गिराए होंगे उठ कर देखेगी तब कही , फिर  मन मसोड़ कर बैठ जायेगी तभी छुट्टी होगी स्कुल  के बच्चो की चाय का प्याला  हाथ में लिए  आती होगी कभी चुपचाप गाय की गोशाला में पूरा दूध जमीं पर काड  देती होगी फिर गाय को सहाल कर खाली बर्तन लिए  घर चली आती होगी गुनगुनाते हुए रात में  खाना बनाते समय कई बार अंगीठी में हाथ  जलाती  होगी   युही रात को हमारे बिस्तर पर देखकर चुपचाप रजाई उडाकर सोचती होगी कि मेरे बच्चे सोये होंगे …………………….

न जाने क्यों

भावनाओं का उबाल है रिश्तो की ओढ़नी है विश्वास की धमक है कुछ खोया कुछ पाया है 'मन' न जाने क्यों खामोश है आत्मविश्वास लबरेज़ है मेहनत की जिंदगी है लड़ने की कोशिशें जारी हैं कुछ पास हैं कुछ दूर हैं 'मन' न जाने क्यों खामोश है रिश्तो की परवाह हैं जीने का सलीका हैं "सच्चाई' की यादें हैं छा जाने के अरमान हैं 'मन' न जाने क्यों खामोश है यादों का झरोखा हैं सम्मान की बुनियाद हैं सत्य की समझ हैं जिद-ओ-जहद जारी हैं 'मन' न जाने क्यों खामोश है 

तू साथ है

उनकी सहजी सी बातों में शुकराना वो पूरे सफर का लेखा जोखा घडी मिलन की याद है बिछुड़ने की हर दास्ताँ तक वो साथ और प्रोत्साहन की बातें हर सीख सिखाती गयी उसपर हर घडी साथ है बिछुड़ने की हर दास्ताँ तक वो आदर और अपनेपन की बातें हर बार कुशलक्षेम पूछते गए लोग जो साथ चले बिछुड़ने की हर दास्ताँ तक वो ठहराव और न भूलनेवाली बातें हर बार ये कहते गए तू साथ है तो सबकुछ है बिछुड़ने की हर दास्ताँ तक............

रंचना है

वो करीब है जो दूर है स्मृतियों में रचा बसा  संसार है  आस की किरण है  संवेदनाओं का मज़बूत  सरोकार है  वो मौन है जो भीड़ मे है अकेलेपन मे घुला मिला  सुस्वाद है भावनाओं की ज्योत है विश्वासों का मज़बूत  हिमालय है  वो चुप है जो सीमित है  ख़ामोशी मे आस पास की रंचना है  विचारों की दृढ़ता है  गहरे इरादों के राह की जड़ता हैं 

सच्चाई गुम है

घर के किसी कोने में  सासों की कोई झडी है पुराने सामान के ढेर में  कुछ बहुत अनमोल है  जाने कैसी होगी ‘सच्चाई’ जो नज़रों से दूर हैं  ‘मन’ के किसी कोने में स्नेह की कोई बात है रास्तों के बिखरे आसमान में पेड़ों की कोई छांव है  जाने कैसी होगी ‘सच्चाई’ जो एक तरह से अनमोल है क्यारी की किसी पंगत पर फूलों का कोई झुण्ड है  मन के कोनों से वो नज़र ढूँढती रही ठिठकते पैरों के थाप सूनी हैं  जाने कैसी होंगी ‘सच्चाई’ जो जहां मे कहीं गुम है 

खोया तो बड़ा होगा

बाहर ईद में दीवाली के पटाखें हैं अंतर्मन के कुछ ख्वाब अधूरे हैं ख़ामोशी जारी है नैपथ्य की कुछ खोया तो बड़ा होगा शहर की सुनसान सड़को पर घूमकर अहसास हुआ कि थमा सा है अकेलापन जारी है भीड़ का कुछ खोया तो बड़ा होगा अशांत मन से हालत पूछे हैं कई बार पाया कि जबाब भी नदारत हैं जारी हैं जीवन की कशमकश कुछ खोया तो बड़ा होगा 

हर सांस में

राग में अनुराग में या कि फिर अभिमान में  तु साथ चलता ही लगा हर ख़ामोश राह में शब्द में स्वभाव में  या कि फिर अहसास में  तु मान रखता ही लगा हर घडीं हर काल में  रंग में अनुसरण में  या कि फिर अभिताप में तु सम्मान करता ही लगा हर भेद में हर भाव में पास में संताप में या कि फिर परमार्थ में तु ‘मन’ जुडाता ही रहा  हर आस में हर साँस में

कौन हो तुम

 कौन हो तुम शक शुबा शंका हो तुम स्नेह अमृत नीरजा हो तुम विश्वास की पोटरी में बंधी सुदामा की चावल सी हो या यूँ लिखू कि अनकही दर्दो की ग़ज़ल हो तुम  कौन हो तुम हंसी ख़ुशी ऐतबार हो तुम मुस्कुराती धवल सरिता हो तुम सम्मान के शिखर पर बैठी बर्बरीक सी आँखे हो तुम या यूँ लिखू कि कान्हा की बांसुरी कि तान हो तुम  कौन हो तुम संगे साथी मुसाफिर हो तुम रोती बिलखती भूख हो तुम गरीबी के घर की रूपसी हो खाली घरो के सम्मान हो या यूँ लिखू कि गुमसुम पड़ी एक लाश हो तुम  कौन हो तुम भागती दौड़ती अबलता हो तुम प्यासी उदासी निर्भीकता हो तुम छोड़कर चली गयी सांस या 'मन' का विश्वास हो या यूँ लिखूं  कि निसहाय छोड़ती तक़दीर हो तुम  कौन हो तुम ?

वो तु है

जिसकी नज़रों का थोडा सा अपनापन ही काफ़ी था वो सारा जहां दे गया तरसती थी जो सासें उन्हें वो ढेरों इबारत दे गया  जिसको पढ़ने को तरसती थी ‘मन’ की सारी आशाऐं वो स्नेह की पाती दे गया महीनों जो सोयी नही आँखें  उन्हें सुनहरा ख़्वाब दे गया शंकाओं के घनघोर खरपतवारों मे भी  जिसके लिए मन बीजूके से डटा रहा वो अपनेपन की सब निशानी दे गया शक के कोई बीज पनप न सके वो यादों की सुनहरी फ़सल दे गया

बंदगी कह जाना

जब स्पर्श हो वतन की मिट्टी का जब अपनों से गले मिलना चुपचाप भीगीं पलकों से मेरा भी सलाम कह जाना   शहर की आब-ओ-हवा में जब घुल जाय मन चुपके से हाथ लहराकर मेरा भी स्पर्श दे जाना हमवतनो के बीच भीड़ में जब कोई आवाज़ देता सा लगे चुपचाप मुड़के  देखकर मेरी भी बंदगी ले जाना कभी अकेले घर के कोनों से ख़ामोशी को तोड़ती हुई खन्न की कोई आवाज़ आये मेरे सम्मान की छोंक समझ जाना .... 

तु सब दे गया

तु भी चल दिया कुछ अपनापन  कुछ यादें दे गया विश्वास की सौग़ात  स्नेह की अनमिट पावन कहानी दे गया समृतियों मे पनपता एक ख़्वाब दे गया बुज़ुर्गों के आशीष का स्नेहभरा हाथ दे गया जीवन को अपनों सा अहसास दे गया  अविश्वास के उलझे  सारे  तार तोड़ के गया सादगी के धवल पैग़ाम  सच्चाई के पल दे गया जीवन की गहराइयों को एक नया मतलब दे गया