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Showing posts from June 16, 2019

रंगो की ताबिर

विश्वासों की राह में हमनें  जब जब ग़ैरों की बात सुनी  खुद से खुद को दूर ही पाया जब जब तुमसे बात ठनी  विराने में जब भी हमनें  ‘मनसे’ मन की बात कही  तुझको अन्तरमन में पाया  जब जब सच से बात हुई  सूनी रातों में जब हमनें ख़ाली छत से बात कहीं  तुझपर रच डालें गीतों ने  क़लम उठाकर बात कहीं  ख़ाली होते मन मे हमनें रंगों की ताबिर रची  नज़र गढ़ाकर पाया हमने  बुत से मन में आस जगी 

दो मन

जब घर की किसी क्यारी में कुछ फूल खिल जायें जब सुबह बारिश की बूँदें  उनपे झूलती हुई मिलें उस प्रतिबिम्ब में कुछ याद आयेगा   न ख़ुशबू न तितली होगी न भँवरा होगा स्नेह का वो तोड़ता हाथ मेरा नही तेरा होगा  जब कोई स्नेह से पिरोया गुलदस्ता  घर के किसी कोने में मुस्कुराएे फिर कुछ दिनों बाद  सबकुछ मुरझा जाये जब पत्ते झडें कली झडे फिर जब न ख़ुशबू हो ताजगी वो व्यथित मन सा मेरा होगा तेरा नही

उनसे जुड़ती रही

आसमां की चाह किसको मै धरा पर ही चला हूँ  रास्ते जो अनभिज्ञ थे  मंज़िलों तक ले चले मीत के क़िस्से कहाँ  मैं दोस्त तक सिमटा रहा रिश्ते जो बन न पाये सम्मानों के शिखर छू गये साथ चलता कौन यहाँ  मैं एकाकी बना रहा लोग जो रुक न पाये दूर तक भी अपने लगे कुछ भी तो अपना था कहाँ  मैं कुछ समेटा ही नही  स्मृतियाँ जो घर कर गयी उनसे जुड़ती ही लगी 

वो दो

वो अविश्वासों की खायी खोदे यूँ बैठे रहे कि जब हम पास आयें अपनेपन के हर पल कुचल डालें  हर अहसास पनपने से पहले मर जायें वो  जिसके लिए इन्तज़ार था बरसो असमंजस इतना कि न ही आयेगा वो बरसो बाद आया तो यूँ आया अविश्वास की हर ऑधी उड़ा ले गया ....,,.

पास क्यों

उनके बीच जो विष का कारोबार करते रहे मेरे स्नेह के बीज  तुने जाया न होने दिये कितनी कोशिशें रही निस्त-ए-नाबूत की  मेरी सुधी की फ़सल  तुने जलके बचाये रखी  हजारों लांछन होगें  कि गिर जाऊ नज़रों से ये छवि कच्चे धागों पर फिर भी तुने गिरने नही दी  वजह यहीं अलग करती है  तुझे सबसे पास रखती है  गहराइयों मे जो एक बार उतरी  ‘मन’ ने फिर विमुक्त होने नही दी 

जाने क्या था

जाने क्या था ये ताना बाना जो जुड़ा तो जुदा हो ना पाया दूरियों मे रहा मगर स्मृतियों से ओझल हो ना पाया जाने कौन सा था ये अपनापन कभी शिकायतें तो कभी नाराज़गी लुका छिपी ही होती रही मगर मन से दूर कभी हो न पाया   जाने कैसी थी ये सीमित बातें गुम ही मिली जो लिखी भी न गयीं निति निर्रथक ही रही मगर स्नेह के सबसे पास पाया  जाने क्या था उन घूरती नज़रों में उठी कभी झुक के निकल गयीं कुछ जताती सी गयी मगर हमेशा अनकहीं खामोश ही पाया 

दो दुआएँ

अरमानों मे हिमालय सी  उँचाई रखना  मन से जुड़े सम्वेदनाओं के तार रखना  स्नेह की पाती का वो सलाम रखना  दो दुआएँ मेरी भी साथ रखना सम्मानों के शिखर का वो मचान रखना फलों की डाली सा वो झुकाव रखना  अनकहीं उस कहानी का सार रखना  दो दुआएँ मेरी भी साथ रखना सम्बन्धों की बानगी की मिठास रखना किताबों में ख़ुशबुओं की स्मृतियाँ रखना यादों मे मेरी बदमाशियों का मनन रखना  दो दुआएँ मेरी भी साथ रखना उन हल्के सहमे क़दमों की थाप रखना  झुकती उठती नज़रों की नाराजगियां रखना बातों मे कभी मेरी शैतानियों का ज़िक्र रखना  दो दुआएँ मेरी भी साथ रखना

सीमित

वो दो शब्द शुकून देते हैं कि छोटा सा ही सही  भावनाओं की क़द्र तो है  सीमित थोड़ा सा ही सही बाँटना अच्छा लगता है  संवेदनाओं की पहचान तो है किंचित लेषमात्र ही सही  स्नेह अच्छा लगता है कि कहीं अपनापन तो है  तनिक ठहरता तो सही  मुड़कर अच्छा लगता है  कि कहीं इन्तज़ार तो है 

खोया

जीवन कब एक सा रहा  जो पाया उसका गुमान नही खोया, आज भी ‘मन’ ढूँढता है हर कोशिश में वोही तो साथ रहा हर मंज़िल कहाँ ठहराव होती है  कुछपल रुककर फिर बढ़ जाना है खोया, सब कुछ हारना नही होता कुछ तो है जो शक्ति बन साथ रहा रिश्ते भी सब कहाँ पास होते हैं बस मन में होते हैं कहाँ साथ होते हैं खोया, उन्हें यूँ तो कोई दर्द नही होता वोही है स्मृतियों के साथ मन मे बसा रहा 

एक मुसाफ़िर

एक मुसाफ़िर वो भी है जो साथ चलता ही लगा  दूरियाँ मीलों रही  पर पास बैठा ही लगा  बात ज़्यादा की नही है  हर मौन मे बसता गया रिश्ते खामोश ही रहे पर हर गीत मे रचता लगा भावनाऐं जो कभी बोली नही हैं सब बात उससे कर गया यूं तो काँपती ही रही पर हर आवाज़ से अपना लगा 

अकेले में

तु साथ ही रहता है हर वक़्त  तु पास ही बैठा मिला  जब कभी नज़र घुमायी अकेले मे तुझसे दो बाते कर डाली  तु हर गीत मे एक शब्द बनकर छन्द बनाता ही मिला  जब कभी क़लम उठायी  अकेले मे तुझपे दो बातें लिख डाली  तु हर सोच मे निश्चय बनकर  दृढ़ता सा लाता मिला  कल्पना ने जब पंख ओढ़ें  अकेले में तुझसे कई शिकायतें कर डाली 

सोचा कि ...

दूर कहीं यूँ अकेले में  जब याद आया वो ताना बाना सोचा तो विश्वास से बड़ा ज़मीर क्या मन के सम्मान से बड़ा अपनापन क्या  यूँही अकेली रातों में  जब सोचा स्नेह तृष्णगी का वो रिश्ता सोचा कि आँसुओं से बड़ी सच्चाई क्या और नज़रों के झुकने से बड़ी इबादत क्या  यूँही गुमशुम ख़्यालों में जब कोई मन से एक पल दूर न हो सोचा कि चेहरे के भाव से बडी शिकायत क्या और चेहरे की छोटी सच्ची हँसी से बड़ी उम्मीद क्या