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Showing posts from January 12, 2020

प्रेम

प्रेम के प्रतिरूप रहे हैं अनेक  प्रेमी, प्यार और सर्वस्व रहा  कोई प्रेमी बना किसे प्यार मिला  स्वत: ही सर्वस्व पा ही गया  वो जो सबकुछ हार गया  राधा का प्रेम अनमोल रहा रुक्मणी को अपना प्रेमी मिला वो मीरा थी जिसको ज़हर मिला अस्तित्व  गया सबकुछ ही मिटा  पर सर्वस्व अपना पा ही लिया  प्रेम के रुप अनेक रहे  जो सत्य रहे पूजते ही रहे  मिलना खोना चलता ही रहा  पाना बिछड़ना लगा ही रहा  और मनों मे प्रेम खिलता ही रहा 

अचेतन

जब जब गाँव की गलियाँ मेरी  जब जब बौरायें झरनें पहाड के  माँ मुल्क ने पुकारा जब जब  जब जब गीत लिखे मल्हारी  याद रहा वो स्वरुप अचेतन तु बाबा! या वो रुप अकिंचन 

नींव की ज़मीं

बुलन्दियाँ मेरी  दिखी सबको  वो अडा रहा मेरी नींव की ज़मीं पर  ना हिला न डगा न कदम बहके  वो जमा रहा मेरी जड़ों के बजूद पर ओज था जो बचा अहसास सबको रहा वो ही कारीगर रहा  मेरे रास्तों की देहरी  पर  न कहा न सुना  न जताया कभी  वो साथ मे खडा रहा  बढती पड़ती हर बेल पर 

वो झिझक

झुकती नज़रें कोने से  अब बुलाती नहीं । उठती हथेली दुवाओं की  इबारत लिखती नहीं । अहसास दबे रहते हैं मन में,  यादों की कुछ कहानियाँ  कभी पूरी होती नही । छूवन सुने अहसासों की  अब महसूस होती नही । नज़दीकियाँ वो अपनों से ख़ुशबूओं को ढकती नही । ख़्वाब दबे रहते हैं मन में , स्नेह की कुछ पक्तियाँ   कभी पिरोयी नही जाती । मुड़कर देखने का मन होता है पास बुलाती वो नज़र नही । चलता है बहुत कुछ आसपास  खामोश पदचापों की आवाज़ नही । हँसी रहती है अब भी होंठों पर, पर तेरे सामने वाली वो झिझक  अब कहीं और के लिए नही आती ।

मृगतृष्णा

घास फूँस की झोपड़ी में जब बैठेंगा वो झील किनारे  देखेगा आती लहरों को  उन्माद फिसलती किरणों को सोचेगा सब मृगतृष्णा तब  कोपल फूल खिलाने को  हाथो से कोई कंकड़ फैंके  जब लौटती लहरों तक पहुंचेगा  सुखी बजरी, रेता ख़्याब  अंकिंचित कोई मन रह जायेगा  खाली पडी कुछ कौढियों में  फिर जीवन मर्म तलाशेगा  चेहरों में होंगें दर्श बहुत  कुछ स्याह सा छूट जायेगा  पास होगा सब कुछ सबके  कुछ छुटता सा याद आयेगा  खाली पडी स्मृतियों की ढेंढीं पर  कुछ ठक ठककर चला जायेगा