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Showing posts from April 14, 2019

तेरा मेरा गरुर

कभी चुपचाप सोचेगा तो रंजिशें भुला देना सफ़र जो ख़त्म होने को है मैं साज़िशें भुला दूँगा  यादें भी ख़त्म होंगी बातें भी मोहलत जो साँसों की  ये सब उसकी कारगुज़ारी है  न तेरा अभिमान साथ गया न मेरा गुरुर तेरे वो सीमित शब्द बेरुख़ी है या डर है तेरा कभी फ़ुरसत मे सोचुगां अभी जोड़ लूँ मनो को जो उजड़ने को हैं कौन जाने फिर  मुलाक़ात हो न हो 

खुद ही

मन चौरस की जमात बिछाये ख़्वाब ख़ाली करने को है  बिसातों पर बिछी रही कल्पनाऐं फाँसों ने अजब चाल चलाई है  दोष अपना ही होगा शायद आस की फ़सल ख़ुद ही जलायी है  मशाल लिये हम ख़ुद ही थे  लाक्षाग्रह की अन्धेरी रातों मे  पत्थरों पर उगती रही जो उम्मीदें  आकाशबेल ने अजब जकड़ बनाई है सन्देह की अंगुलियाँ अपनी ही तरफ़ रही उम्मीदों पर ख़ुद ही क़हर बरपाया है हमने 

चला जा रहा है

दूर कहीं आकाश मे  वो तारा टूटता जा रहा है विरह वेदना के सम्वत सुरों से कोई साथ अब छूटता जा रहा है  कोई मंज़िलों पर नज़र को गड़ाये  मै ख़ानाबदोश घूमता जा रहा हूँ  पथ प्रणय का जो होता तो यूँ ग़म न होता वो ठहराव ज़िन्दगी का बहा जा रहा है  जो सीमित ही रहा है हमेशा  मेरे विस्तार को अन्नत करके  वो अजनबी जो शून्य मे धकेलता रहा है चला जा रहा है कुछ ख़्वाब देकर 

जरूरी नहीं

ये जरूरी नहीं कि दरिया धरती पर ही बहे कुछ पाक नदियाँ इसके गर्त में भी बहती है मन की बातो को तु जुबां तक तु लाता नहीं या कि कभी अरुणोदय ही न हुआ संवेदना का ... ये जरूरी भी नहीं कि तु लिख दे या कह दे कुछ भी मन ने जिसे पढ़ा हो  मौनमयी ही रही है भाषा वो इच्छाओ कि औदम्ब्रा ही रहा मन देश ऐ दोस्त ! सोचता हूँ कि ये रिश्ता पावन है या है ही नहीं?

तलाश

जीवन के फ़लसफ़े हैं  कभी धूप है कहीं छांव है  मिलना बिछड़ना नियत सही कभी तु नहीं तेरी याद है .... खट्टी मिठ्ठी यादो के साथी  जब हो बिछड़ने के कगार पर  उमड़ते हैं तृण तृण यहाँ  मनाग्नि की कोमल याद से.... यूँ सफ़र एकाकी ही था तेरे आने से एक रंगत सी थी  जा रहा है मुसाफ़िर फिर कहीं मंज़िलों की लताश मे  साथ कारवाँ जो चल पड़ा था  हर शख़्स उसमे अपना लगा अंकुरित आस वीरान कर गया जो मनो के सबसे क़रीब था 

अकेले मै सोचा है

तू भी मेरे जैसा है, कहना चाहु तो कह नहीं पाता हसता रहता हूँ , तो लोग सवाल करते हैं में भी तेरे जैसे हूँ , दबाये मन की बातो को सीमाएं कही टूट न जाय, ख़ामोशी कुछ पूँछ न ले हम-तुम एक ही सोच रही हैं, शंकाओ ने घेरा हैं अलग अलग जो दिखते हैं, अंतर्मन ने  जोड़ा  हैं प्रश्न पूछने थे तो तुमसे खुद ही उत्तर दे डाला दूर दूर ही रहे हमेशा पर मन को अक्सर पढ़ डाला हर भीड़ मै ढूंढा हैं खोने से मन रोया है हरपल 'मन के' पास रहे वो तुमको अकेले मै सोचा  है

यूँ शामिल है

भीड़ मै अक्सर मै तुझको ढूंढ़ता हूँ बस जो किसी भीड़ मै तू शामिल हो तो मुझको कोई और नहीं दिखता यूँ शामिल है तू इस जीवन  मै न चाहूं तो मगर फिर भी तेरा जिक्र अपनों मै हो ही जाता है खोये है कई शामें युहीं रूठने मनाने मै मै जब भी सोचता हूँ तुझको फिर कुछ और कर नहीं पता 

टीस

स्वप्न यहाँ भी है वहाँ भी होंगे  बस यही जो फर्क है हममे  कोई रातो में जागा है  कोई चिरनींद सोया है  मैं जगता हूँ यूँ रातो मैं  मेरी ये बेबसी है दोस्त  किताबो मै हूँ या लोगो मै  अक्सर तुझे सोचता हूँ मैं कई शामों को तनहा ही  इस टीस मैं बसर किया मैंने  चिल्लाया जो था तुझपर मैं  पर कभी रूठा नहीं हूँ मैं  तू कितना दूर भी होले पर मन के तटस्थ रहा है तू  ये दूरी भी तुझे मन के  दरिबों   मैं बैठा देगी  ....

कैसे मान लूँ

तेरे जाने की आहट मन समझता तो है पर मान कैसे लूँ  ये शहर सपनों का  वीरान  हुआ जाता है  वो हाथो की लकिरें  ख़ाली ही थी जानता था पर ये मान कैसे लूँ  ये यादो की मीनार यूँ ढहने को है  भीड़ मे  सन्नाटा  महसूस किया था मैंने  पर ये कैसे मान लूँ  ये ज़िन्दगी की सहर यूँ बिछड़ने को हो वो रंग बे-रगं रहै ग़म नहीं इसका पर ये कैसे मान लूँ मेरा यादो का ये बसन्त फिर लौटकर न आयेगा 

मैंने मान लिया

तु पराया कब हुआ ये तब पता चला जब लोगों ने कहा कि तु जा रहा है और मैंने झूठ कहा “कि मुझे पता है”   दूरियों का अहसास तब हुआ जब तुने  कहा “जल्दी में थी” और मैंने मान लिया ... ख़ामोशी का अहसास तब हुआ जब तेरे क़दम ठिठक कर चल दिये और मै सरपट दौड़ गया यूँही उन सम्मानों का असर भी रहा जब मिलती हुई आँखों ने कोई बात न की और मन चुपचाप रो गया..... 

दरवाज़े से

यूँ अहसास ख़ुशियों का मन रंग गया कि रूठे से अपनो ने कुछ बात की हो  वो दरवाज़े से लौट भी जाय तो क्या ख़ाली होते शहर ने हँसने की कोशिश की है जाले रिश्तों से हट जाये इस कोशिश मे वो सुना गया है कुछ थोड़ी खरी खोटी शहर जो बे-चिराग़ होने को है तो क्या बर्क से ही सही पर चमकने की कोशिश मे है