कैसे मान लूँ

तेरे जाने की आहट
मन समझता तो है
पर मान कैसे लूँ 
ये शहर सपनों का 
वीरान हुआ जाता है 

वो हाथो की लकिरें 
ख़ाली ही थी जानता था
पर ये मान कैसे लूँ 
ये यादो की मीनार
यूँ ढहने को है 

भीड़ मे  सन्नाटा 
महसूस किया था मैंने 
पर ये कैसे मान लूँ 
ये ज़िन्दगी की सहर
यूँ बिछड़ने को हो

वो रंग बे-रगं रहै
ग़म नहीं इसका
पर ये कैसे मान लूँ
मेरा यादो का ये बसन्त
फिर लौटकर न आयेगा 

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