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Showing posts from May 12, 2019

तेरी शिकायतें

जो तुम ‘उसी समय भूला’ गये वो आज तक कचोटता है वो मेरा व्यवहार हो या तेरी शिकायतें  जो तुम लिख कर मिटा गये  वो आज भी पढ़ना है मुझे  हो मेरे मन की बात या तेरी शिकायतें  जो तु छोड़कर चला गया वो आज भी पड़ा है किसी कोने मे  हो मेरे मन का विश्वास या तेरी शिकायतें  जो तेरी नज़रें कह देती थी कभी  वो आज भी सुनना चाहता हूँ मैं  हो मेरी नज़रों का वहम या तेरी शिकायतें  ......,,

तू भी मै भी

क्या सच था क्या झूट था न तूने कभी समझाया न मै शायद समझ पाया तू भी खेलता रहा मै भी ..... वो रूककर चलना झूट था, बता जाना वो कहकर मुकर जाना, बता जाना स्नेह की नज़र के खोट तू भी पहचानता होगा मै भी ... वो लिख कर मिटा जाना, बता जाना वो नज़र से गुस्सा होना, जाता जाना दो चार बाते मन की जो सुनाई नहीं तू भी सुना जाना मै भी ... खुलकर जो कह नहीं पाया, कह जाना रुशवा करना था दोस्तों मै, कर जाना मन के दाग जो दिखे नहीं तू भी लगा जाना, मै भी ...... जब जाना तो यूँ जाना कि सब कुछ कह जाना हो गाली या अपनापन सब जाता जाना जीवन की अनमिट अधूरी बातों मै न तू जी पायेगा, न मै भी ..... ........................... 

मुठ्ठी की रेत

वक़्त मुठ्ठी की रेत सा फिसल चला शख़्स शहर को बीरान कर चला जुगनु के गुम होने का यूँ ग़म न होता   जो अगले बरस लौटने का इशारा होता हिमालय को पिघलती बर्फ बेरंग कर गयी धैर्य रावण सा जाने कैसे कमजोरी बन गयी  खुद के गिरते गुमान का यूँ ग़म न होता  जो भूकम्प मन को तेरे सामने यूँ गिराया न होता  नीड़ विश्वास का बँधा रहा शाख़ पर तूफ़ा में  क़दमों का रुकना आशाओं को सहारा देता रहा  दौड़ने को तो कौन नही दौड़ नही सकता  ठहर कर किनारे पर तुझे खोने का दर्द लिखता रहा 

तुझ पर

देखा है वो डूबता जहाज़  देखे हैं दूर रेत पर तेरे निशाँ  वो आस के चार शब्द भी मिटते देखें तु जो सोचता है ‘मन’ नही  तेरी ख़ामोशी  को महसूस किया है  देखा है नज़रों का फेर लेना  देखा है तुझे शून्य होते  उस हँसी को तनाव मे बदलते देखा  जो तु मानता है सोचा नही  हर बार एक दर्द दे गया  माना है हर बार क़सूरवार खुद को  पढा है उस नफ़रत को भी देखा है तुझपे तेरे लोगों का असर  जो सब कहते है कभी विश्वास नही  हर बार तेरा सम्मान बढ़ सा गया ...

स्नेह का प्रतिरूप

वो तेरा सर हिलाना  तेरे मेरे सम्मानों का रिश्ता है  एक अपनापन है  शायद आज भी  जो बयां न हो पाया  तु स्नेह का वो प्रतिरूप है   यूँ तो तेरे पास होने न होने से  अब खास फ़र्क़ नही पड़ता   दोनों ही हालात  मन की उदासी बढ़ा जाते है  जो लिख न पाया कभी  तु स्नेह का वो प्रतिरूप है  यूँ तो नज़दीकियाँ  दूरियाँ न थी तु मन मे समाहित है हमेशा  तेरी सच्चाई भुलना आसां नही नही वो दूरियाँ कुछ भुला पायेंगी   जो जता न पाया कभी  तु स्नेह का वो प्रतिरूप है 

बाक़ी बचे स्वप्न

तिमिर से गोधूली के सारे सपने अब नही आते  बाक़ी के स्वप्न सच नही होते  दिवसीवसान पर पक्षियों की तरह घर को लौट आता हूँ  पर वो घर सच मे घर नही होते  दिन के सहरा में चमकता है  कुछ दरिया जैसा  पर वो आस को बढ़ाता नही 

तु

क्षितिज के छोर पर  पलाश के फूल सा  लाल ओढ़नी ओढ़े  आज भी तु है  ढूँढता हूँ कहीं  क्षितिज के छोर पर मेरे लिए तेरा अस्तित्व  रक्त किरणों की तरह है  सबसे दूर चले जाने पर ढूँढता हूँ उस लालिमा को जहाँ पर असीम शान्ती यादो की पवित्र धूली मिलती हैं और मिलता है वो अपनापन  जिसे मैं बाँटना नही चाहता  तु मेरे लिए उद्देश्य नही  मेरी हार मे भी जीत रहा  इच्छायें होती अन्नत  या मन होते दस बीस  पर काश हो न सका  और ढलता ही सही तु सूरज सा एक रहा 

तू कभी

तू कभी माँ के आँचल सी लगी कभी बहन के श्रृंगार सी लगी सोचा है तुझे प्रेयसी सा कभी कभी बेटी की नटखटता सी लगी तू ही था कभी पहाड़ सा लगा साखों पर झूलता कोई बच्चा लगा देखा है तुझे कोमल बछड़े सा कभी कभी माँ का बोया वह जंगल सा लगा तू कभी बचपन के दोस्त सा लगा कभी घूरता हुआ कोई बुजुर्ग लगा देखा है तुझे हर रूप में हर बार तू मन के सबसे करीब लगा ..... 

कभी यूँ रहा

कभी कमी सा लगा कभी तेरे बिना अधूरा रहा यूँ शामिल रहा तू जिंदगी में कभी अपनों सा लगा कभी पराया रहा कभी नाराज़ सा दिखा कभी तेरे बिना उदास रहा यूँ शामिल रहा तू जिंदगी में कभी सबसे दूर लगा कभी पास रहा कभी कुछ कहता सा लगा कभी तेरे बिना खामोश रहा यूँ शामिल रहा तू जिंदगी में कभी जुबां पर रहा कभी मन में रहा 

तू क्यों

तुझे खोने की कमी शायद पूरी न हो छोड़ दे सारी गुमनामी मेरे लिए ये ख़ामोशी  रिश्तो की कसक है तू क्यों लुका छिपी औरों को बताता है तेरा जो मक़ाम ऊँचा है उसे बनाये रख छोड़ दे सारी बदगुमानी मेरे लिए ये खपा होना रिश्तो की मिठास है तू क्यों  औरों से नाराज दिखता है तू बदल जा मेरे लिए इसका दुःख नहीं औरों से तेरा बदलता व्यवहार न सुनु ये भूलना भी इंतहां है मेरे सम्मान का तू भी क्यों मेरी तरह हारने की जिद में है ....

ख़ामोशी से

शब्द जो खामोश, निकले नहीं अस्तित्व का मान बढ़ा गए दूरियों को  हर बार देखा अपने करीब  आते हुए जो दूर ही रहता है सबसे कौन है अपने लिए शांत दिखने वाले ही अक्सर उलझन में दिखाई ही दिए जो  सीधा सा दिखा  चेहरा सबकुछ छुपाने की कोशिश में भाव हर बार बदलते देखे अपनापन या नाराज़गी दिखाने में हो नहीं पायी जो बातें कुछ निशां यूँ छोड़कर गयी अधर हिले हों न हों मन को झकझोर कर चल गयी 

हार मे भी जीत है

इस हार मे भी एक जीत है  जब सम्मान का अपमान हो  जब तृष्णा मे बेस्वादी हो  जब मनों मे दूरियाँ हो  क़दमों मे जालें हो और पंख फड़फड़ाते हों  इस हार मे भी एक जीत है  जब कारवाँ वीरान हो  जब दिशायें यूँ  ख़ामोश हो और दोस्ती मे दिवार हो  नज़रों मे नाराज़गी हों और मन में स्नेह हो इस हार मे भी एक जीत है  उजालों से पहले रात हो सूरज अपना न हो चंदा न हो  क़लम की साथ देता बाज़ीगरी न हो  जब सोच कर कहना पड़े यूं  सीमाओं मे लिखना पड़े   

चल बहुत हुआ

ये सफ़र बस ख़त्म सा  ये लिखना लिखाना दर्द का  चल टूट जा ऐ क़लम ! कौन है जो तुझे समझ पाया है  खामोंश पलो के कुछ शब्द  ये गीत ग़ज़ल सम्मान की  चल बन्द हो जा ऐ किताब ! कौन है जो तुम्हें पढ़ पाया है  उकेर गयी कुछ अनमिट यादें  ये सुनना सुनाना अपनेपन का  चल फिर अजनबी हो जा ऐ ‘मन’! कौन है जो तुम्हें याद रख पाया है 

फिर भी आवूगां

एक सफ़र है यादों का तु कहता है भूल जाउूंगा  अपने मन से पूछ मेरा भरोसा नही  तु भूल जायेगा मै फिर भी याद आवूगां  एक याद है इस सफ़र की  तु सोचता है भूल जाउूगां ग़ैर को मत टटोल खुद से पूछ तु दौड़ जायेगा मै फिर भी रूक जाउूगां कौन जीया है तुझे पाने को तु सोचता है सम्मान कम हो जायेगा  मन की आवाज़ से एक धाद देना तु भूल जायेगा मै फिर भी दौड़ आवूगां

कहते कहते

वो जो तु कहते कहते रुक जाता है  वोही अपनापन तुझसे दूर जाने नही देता  न जाने क्यूँ आज भी एक सच्चाई सी लगती है कौन है ये पूरब का बटोही यहाँ  वो निर्वाह करते आये थे हर रिश्ते  रावण ही सही पर मन को कभी जीतने न दिया  न जाने क्यों इस हार मे एक जीत थी  कौन है ये खुशियों का बाज़ीगर यहाँ  सबकी अपनी सीमाएँ है सबका राज है  पराया ही सही पर मन के क़रीब था  न जाने क्यों तुझ तक सोच जाती है हर बार कौन है ये अपनो सा पराया यहाँ 

तेरी मेरी

कुछ तेरी होंगी कुछ मेरी होंगी  बातें होंगी शिकवा शिकायतें होंगी बैठना कभी ठौर ‘दगड्या’ अपनेपन की दो चार कहानियाँ होंगी कुछ तुने कुछ मैंने छुपाई होंगी  लोगों से सुनी बहुत बातें होगी  खुलना कभी जी भर के ‘दगड्या’ कुछ परतें दबीं तेरी होगी कुछ मेरी होंगी  कुछ तथ्य तेरे होंगे कुछ मेरे होंगे  कभी सच्चाई से खुल के बातें होगी मन साफ़ अकेले आना ‘दगड्या’ अपनेपन के दो आँसू तेरे होंगे दो मेरे होंगे 

पहाड हूँ

पहाड हूँ हर बार मिलूँगा वहीं  टूटा हूँ झुका हूँ फिसला हूँ कई बार  तु नदी है बह चल तेरी चाल है  फिर शायद न हो मिलना कभी  पहाड हूँ हर बार मिलूँगा वहीं सामना किया है झेला है हर झंझावत को तु स्वतन्त्र पंछी है उड़ना है तुझे फिर शायद लौट के आना न होगा कभी  पहाड हूँ हर बार मिलूँगा वहीं सराय बनकर सहारा सा दिया है  सभीको कभी मुड़कर देखेगा तो मिलूँगा वहीं  जहाँ से तु छोड़कर गया था कभी 

कुछ साबित नही करना

गूँगा तुझसे ज़्यादा बात कर गया अनपढ़ तुझसे ज़्यादा लिख गया जानता हूँ छुपानी थी हर बात तुझे  आख़िर तेरे तरह मुझे कुछ साबित नही करना  दुश्मनों से ज़्यादा तु रुसवा कर गया  परायों से ज़्यादा तो तु नकारता गया जानता हूँ झुकना नही था हर बात पर तुझे आख़िर तेरी तरह मुझे जीतना नही है तुझसे अजनबीयों से ज़्यादा तो तु दूर रहा पड़ोसियों से ज़्यादा तो तु बात छुपा गया जानता हूँ मेरे अस्तित्व की परवाह नही है तुझे  आख़िर तेरी तरह सबसे झूठा सम्मान नही है मुझे