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Showing posts from April 26, 2020

जब भी

जब भी यादों के कोनों से  कुछ झुरमुट झर्रायें हैं हँसता है कोना वो घर का  जो अब भी समेटे तुझको है जब भी बातों के तानों से  कुछ शंकायें जन्मी हैं  हँसता है कोना वो मन का  जो अब भी समेटे तुझको है  जब भी रास्तों के काँटों से कुछ खरोंचे चुभती हैं हंसतीं है पीड़ा वो मन की जो अब भी समेटे तुझको है जब भी निगाहें मन पर कोई घाव बनाती जाती हैं हँसते  हैं वो खाली कोने जो अब भी समेटे तुझको है   जब भी खाली दरवाज़ों पर कुछ आवाज़ें लगती हैं  हँसती है आशायें मन की जो अब भी समेटे तुझको है

तु जब गया

ये वो पड़ाव है जहाँ तु ठहरा नही  रुका तो हूँ पर नज़दीकियाँ नही  हँसती सी कोई बयार चल निकली  तेरे साथ यादों की ताजगी बह निकली मेरे होने का अहसास हो ये तय है तेरी तरह जाने पर  दुख न हो कहीं  ये हक़ तुझतक रहें मर्यादा की सीमा में  यूं तेरे साथ मन की ख़ुमारी चल निकली  यूँ तो भटकती रही हैं ये ज़िन्दगी  और पाने के नाम पर खोया है सभी जाने को तो तु भी गया पर  लाखों यादें समेटे है ज़िन्दगी 

उँची सी आशायें

ये जो ऊँची सी आशायें हैं न! वहीं तो रिश्तों की निशानियाँ हैं  ‘नींव का पत्थर’ रहूँ मैं तेरे बुलन्दियों के जहान की  ये जो गुमशुम सा लगाव है न! वहीं तो मर्यादाओं की सीमा हैं जुड़कर तुझसे रहूँ मैं सीमा तेरे स्वच्छन्द आकाश की ये जो अपनापन छूटता नही न! ये उन गुस्ताखीयों की माफ़ी हैं ग़लतियाँ भूल न सकूँ मै सच्चाई लिए उस शालीनता की 

बरस लगे

बरस लगे उन शब्दों को लौंटने में  जो आस के कुछ रुप थे कुछ तो दिल दुखे थे दोनों तरफ जो विश्वास के प्रतिरूप थे  मन कलह की कड़वाहट में दिखा तेरे डूबते नाव के इशारे से  कुछ तो ग़लतफ़हमी थी दोनों तरफ जो स्नेह के प्रतिरूप थे  शब्दों के बाण चुभे होगें तय था तेरा रास्ता बदल देने से  कुछ जो अनमिट रहा दोनों तरफ आज भी छूटता नही.... 

छोड़ आया हूँ

उड़ने की चाह में, खुला आसमां छोड़ आया हूँ  एक सपने की तलाश में, हज़ारों छोड़ आया हूँ  वो सोचतें हैं कि दो फूल बहका लेंगे मुझको  तो बता दूँ कि सरसों के खेत छोड़ आया हूँ  बसने की चाह में यायावरी छोड़ आया हूँ  एक दिखावे के लिए आवारगी छोड़ आया हूँ  वो सोचते चन्द चारा देकर बाँध लेंगें मुझको तो बता दूँ कि हर खूँटा लाँघकर दौड़ आया हूँ  पाने की चाह में बहुत मंज़िले छोड़ आया हूँ  किसी की हँसी के लिए खुद रोकर आया हूँ  जो सोचते हैं कि भूल गया हूँ सब कुछ  तो बता दूँ हर लक्ष्य साधकर आया हूँ 

जागना है

जब भी हारा हूँ खुद से तो ऐसा लगा जानता ही नही जो मुझमें है अजनबी  जब भी सुनी पडी सोच की बस्तियाँ  खुद को देखा है तिल तिल सा मरते हुए  जब भी खामोश थी मन की जादूगरी हौसलों की नदी तब तो थमती लगी  जब भी मन दौड़ आया पहाड़ों के पार खुद को सोचा तो तन मन की शक्ति नही जब भी बन्द सी लगी मंज़िलों की डगर चाल धीमी रही ढाल बढ़ती गयी  तब भी मन ने जगाया है मन मार कर अब भी जागेगा मन है हिमालय वहीं