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Showing posts from January 26, 2020

मेरा बंसन्त

वो जो दरारें रही  विश्वासों के  बीच  वो फैलाते गये  तेरे मेरे अपने बनकर  न वो मन जीत पाये  न हम हार ही पाये कुछ खण्डहर मज़बूत  नींवों पर खड़े रहें वो पीपल सा फिर  खिलेगा वीरानों में  कीकर सा हरा  कर देगा रेगिस्तां को झूठ का जाल लेकर बहेलिया फिर न आयेगा बस ठहर जा जरा मेरे बसंत आने को हैं 

सौंधी खुशबू

कभी शहर की धूल मिली कभी गांव की सौंधी खुशबू दौड़े सरपट राह अजनबी कभी पहाड़ की शाम मिली कभी सपनों की परचम चाह वो साँस सकुचाती सी लगी बिश्वाश रहा सदा वो अजनबी कभी अपनों  की छाँव मिली कभी सुबह सुहानी जीवन की कभी सपने खोती रत मिली खोया पाया भूली बिसरी यादों की हर साख मिली 

भूल गए

भूल गये सब ‘घोंघा माता’ पवित्र जौं  की डाली भी  चौखट पर फूलों की ढेरी वो फूलों की टोकरी भी  भूल गए वो फसल घंघरिया वो चिड़िया शरमाई सी रूकती चलती पायल खनखन वो नदियां बलखाती सी भूल गए वो कलम मदमाती वो नजरे सकुचाई सी बढ़ती थमती बर्फ धरा की वो औंस सकुचाई सी भूल गए वो ताने बाने वो उलझन कतराती सी आती जाती बेसुध सांसे वो ओढ़नी लहराती सी 

किनारो से

विश्वाशों के त्रिकोण में वहमों के षट्कोण बने बंधे रहे एक जाल में जो वो कोने सबसे दूर रहे शिखर सम्मानों के गिरे नहीं मन सब खोखले हो गए दिखती रही जो दूर निगम से वो खाली होती मीनार रही रास्ते जो भटके नहीं मंजिल तक कभी ले न गए बह गए जो साथ साथ वो किनारो से बच निकले 

सबसे पास थे

चल दिए सभी मगर विराम जिंदगी रही याद रह गए मगर वो दोस्त जो महान थे भूलता गया सभी राह के मक़ाम को याद रह गए मगर वो खेत मेरे पहाड़ के वो साथ में  चला  नहीं जो विश्वाश के निशान थे वो दूर ही रहे मगर जो मन के सबसे पास थे 

सदा पूजते ही रहे

पाना अगर प्रीत की रीत होती तो खोना यूँ स्मृतियों में न होता ज्ञान के चक्षु खुले हो ना-खुले   पर प्रीत की ठीस यूँ सच्ची न होती राधा बनी वो रुक्मणि ना हुई अर्थ प्रेम के भिन्न ना होते रिश्तो की देहरी पे ठहरी हो, नहीं यूँ छाप मन पे अनमित ही रही ध्यान लगा के पा ना सके जो वो जोगी, महंत ना संत हुए वो जो ध्यान गवाएं रहे जग में वह प्रेमी सदा पूजते ही रहे 

ढूढ़ती नजरें

कहीं किसी रास्ते पर पथरा जाती हैं नजरें नदियों के उफान में बहती लगी हैं नजरें कहीं किसी देहरी पर गढ़ जाती हैं नजरें ठहराव मिला वहाँ जहाँ कभी मिली थी नजरें कभी ऊंचे पहाड़ो पर टिक सी गयी नजरें कभी गहरी घाटी में डरा सी गयी नजरें घुप रातों के अंधेरों में अहसास से चला गयीं नजरें जब सब खो सा गया तो कभी ढूढ़ती सी लगी नजरें

परेशान

बादल गरज रहै हैं  मस्जिदों की अजान में  भीगी सी कोई चिड़िया  ओट की लताश में है फिर जाने क्यों लगा कि तु कुछ परेशान सा है  दीये की लौं लहर रही है बन्द खिड़की दरवाज़ों में  झुकी सी किसी डाली पर बूँद गिरने को सहमी है  फिर न जाने क्यूँ लगा  कि तु कुछ परेशान सा है बच्चों का शोर थमा सा है छूट्टी के इस इतवार में  खिले फ़ूल की पंखुड़ियाँ  गिरने को तैयार हैं फिर न जाने क्यूँ लगा कि तु कुछ परेशान सा है