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Showing posts from March 24, 2019

तु

तु मृगतृष्णा है जीवन की  तु धुनि त्रिजुगीनारायण है  तु अखण्ड ज्योत है बाबा की  तु मन की पावन गंगा है  तुझ पर जो विश्वास बना है  तेरे लिए जो सम्मान रहा है  तु सबको लेकर दूर खड़ा है  फिर भी तुझसे एक रिश्ता जुड़ा है हो अखण्ड वो कब टूटा है  सम्मान कभी नहीं मरता है  मन के सहज रिश्ते जो है  वो विश्वास कब मैंला हुआ है

अभिमन्यु और मैं

आज घिरा हूँ कर्मक्षेत्र में अभिमन्यु की तरह उसी की तरह कई द्वारों को पारकर पहुँचा हूँ उस कगार पर  जहॉ से सारे सपने और मंज़िले अदृश्य है रास्ते जिनसे चलकर बढ़ा था यहॉ तक आज भूल सा गया हूँ सबकुछ चारों ओर तरासी गयी तलवारें  और ज़हर लगे बाणों का ढेर है  मैं निर्वाह करके आया था कर्तव्य यहॉ तक  हर क़दम जौहर दिखाया था मैंने  हर रुकावट को परास्तकर बढ़ा था यहॉ तक अब हर घायल भी मेरी राह मे अवरोध है  मुझे डर नहीं इसका कि क्या जबाब दूँ जहाँ को पर उस मॉ से क्या कहूँ? जो अभिमन्यु की माँ की तरह सोयी नहीं थी और आजतक भी मेरे लिए जागती रहती है 

फिर भी

वो मौन आवाज़ मन के पार से थी सुनाई तो नहीं दी कभी  फिर भी  दूर पहाड से आती ढोल की सी लगी वो नज़र जिसने देखा नहीं कभी जी भरकर अपनी ओर घूरती सी लगी फिर भी  बादलों मे लुका छिपी करती कोई किरण सी लगी वो स्नेह जिसे कोई नाम तो नहीं दे पाया अपनों मे भी बेगाना सा कर गया फिर भी  परायों को पाने को पनपती कोई कशिश सी लगी  ............

बदलते लोग

सुना है महफ़िल मे वो शख़्स  मुझे नीचा दिखाकर ख़ुश हुआ वो जिस पर एक ख़ामोश भरोसा था जो सम्मानों के पहले पायदान पर था । हर एक आँख की नफ़रत पहचानती है मुझे हर बार नज़र जो घुमायी है उसने मिलाते मिलाते  वो जिसके लिये क़ुर्बान था हर भेदभाव  और जिसके लिये कईयों से लड़ के आया था । ‘मन’ ख़ाली सा हुआ तुझसे दूर जाते जाते  कुछ और बस मे होता तो लुटाते जाते  अब तो हर शख़्स पत्थर सा उछालता है  और उस पर तु कहता है कि बदला क्या है?

कुरुक्षेत्र

वो अँकुर विश्वासों का  कब खिला ये पता नहीं  और उसके बाद तेरे सम्मान मे कभी कोई कमी की नहीं  तु ही था जो समानांतर था जिसने पहले अपनापन दिखाया था और उसके बाद तुझे अपनो से कभी बाहर गिना नहीं  तु भी था शायद रचता रहा चक्रब्यूह  मै युयुत्सु तुझको मान बैठा  जानने सत्य की कोशिश तो करता मेरा साथ देता ये ज़रूरी न था  तु अभी भी मन-द्वद का रणक्षेत्र है  तु अब भी अपनो मे पीतामह सा लगा तुझे तो हार ही जाना था मुझे पर इस कुरुक्षेत्र मे हारुगां नहीं 

मन में है

इन पंगतो के बीच कोई रश्मिरथी सा सवार था उस याद के आँगन से परे  यह शख़्स अपना सा लगा था ........ यह नज़र जब देखतीं थी हर खुशी तब अपनी लगी अब वही जो इन जड़ो पे तेज़ चलती ख़ंजर सी है ....... मैं जाया रहा कृषक सदा उम्मीद अब भी उसपे है हाथ बौने हो कि कंठ रुन्दन कर भले कर्म से भागा नहीं, तु अभी भी मन मे है ।

अन्तरमन का सत्य

हर शाम घर की छत पर मैंने  ध्रुव तारे को देखा है  निश्चय किया है जीवन जिसने  उस मिट्टी को सींचा है  मेरे लोग जुड़े यूँ इस कारवाँ मे  सर्वस्व उन्हें लुटाते देखा है  कुछ मौक़ापरस्त मुसाफ़िरों को  जीवन मे लंगर डाले झेला है  मान भी लूँ जो तेरे लोग जताते हैं पर मन अपने से कब झूठ कहा है  ना माँगी मन्नत तेरी मन्दिर-मस्जिद  फिर भी अन्तरमन मे सत्य बसा है । ...........

वनवासी

सोच कर सम्मान की छांव  मैने आस का रुद्राक्ष रोपा वो चीड़ के जंगलों सा  फैलता गया इस क़दर। सहाल कर एक बीज बोया हर उतार चढ़ाव पर ठहराव रखा वो एक कारवाँ का झंझावत लाया और सब कुछ उडा कर चल दिया। बिखरता कारवाँ सम्भलता कहॉं  फैलता चीड़ सब कुछ मार जाता है  मै मिश्रित वनों का वनवासी हूँ दोस्त! एकाकी सोच और तेरे दोस्तो में अट नहीं पाया...