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Showing posts from September 5, 2021

छुपाते पूछते मुझसे

 लड़ता है मनाता है  वो किस्से छोड़ जाता है  जीवन की सरल की राहों  को वो सपने दिखता है  कहता मानता मेरी  वो फिर भी यूँ सताता है  सफर में साथ उसका है  सफर सारा सुहावना है  सुन्दर से सजीले लोग  फूलों से पंख लगते हैं  वो टूटे हो दबे कुचले  घिसे या मोड जाते हों  छुपाते पूछते मुझसे  फिर सब कुछ बताते हैं  वो जीवन की मिठासों में  गुड़ चीनी से घुलते हैं अपनों में परायों में  शहर की शाम रातों में  अचक से  मन में आते हैं वो अलसायी सी सुबहों में  मानते रूठते मुझसे  फिर सब कुछ पूछ जाते हैं  वो सांसो की गर्तों से  अंतर्मन मै बसते हैं 

मंजिल की पराकाष्ठा

 सिमटी सी मेरी दुनिया जरा से दायरे मन के  दिन-ओ-दुपहर वो शाम -ओ- रात  तम्मन्ना एक तुम तक है  विचारों का अनोखापन  समझ की  एक नादानी   भरे मंचो का मतलब तु वो खाली सा मकां तुमसे  अनुमोचन के हर सपने  फकीरी की तीमारदारी  सब पाने का मतलब तु  वो खाली हाथ हैं तुमसे अनुबन्द्धों के संबंधों  अकेलेपन की तन्हाई  समय के सार में है तु  वो खालीपन भी है तुमसे  मंजिल की पराकाष्ठा  गिरना जीवन की खाई  सांसों का है मतलब तु  वो दो गज़ का कफ़न तुमसे 

कभी

 हज़ारों रंग उसके हैं  कभी पत्थर कभी मंजरी  कभी वो पास है सबसे  कभी दूरी नहीं मिटती मिजाजों का सफर उससे  कभी गुस्सा कभी हंसती  कभी वो मन बसा सबसे  कभी अपना नहीं गिनती  शहर की हर चमक उससे  कभी जुगुनू  कभी बाती कभी खुद सा लगा सबसे  कभी अनजान रुस्वाई  मनों की प्यास हैं उससे  कभी नदिया कभी पानी   कभी संग संग बहा मेरे  कभी मीलों सी ख़ामोशी  समझाना जिन्हे  मुश्किल  वही पहचान अपनों की  समझते सब हैं मनों की हैं  चेहरे पर वो नासमझी 

व्यस्तता किसकी नहीं

 कसूर है सब भावना का  व्यस्तता किसकी नहीं  तलाश कोई रहगुजर है  कोई जिद्द में दूरियों की   यों कहीं कब दीप मन के  ओझल कहीं होते नहीं  हो लहर का पास आना  या समंदर एक नदी  अर्थ है सब बात का यूँ  कुछ कही कुछ चुप रही  साथ कोई हमसफ़र है  कोई जिद्द सब छोड़ने की  यों कहीं कब साथ मन के  दूरियों में रहते नहीं  दो कदम वो खींच लेना  या  ख़ामोशी ओढ़ ली  त्रिस्कार है हर बात पर  यूँ साफ़ दिखती बेरुखी  कब समय माँगा है तुमसे  एक इच्छा रही है साथ की  हर बार अजमाया गया हूँ  स्वार्थ रिश्ता  कुछ नहीं  मन में जो हो कह भी देना  या समर्पण फिर सही  गिर के सम्भला हूँ नज़र में  अब गिरा जाता नहीं  ठूँठ ही फिर मन सही  अब पत्थर बना जाता नहीं  इस जीवन पर हक़ हे तेरा  बर्बाद हो या आबाद सही  आजमा लो जितना हो सके  या आवाज़ देना फिर सही 

रची बसी है

 समय की डोर जो बंधी रही है आस मेरी  वो समय संग साथ दे ही जाता सारथि  मन की वैदेही आग पार कर जाती है  प्यास है मनों की स्नेह एक आरसी  हाथों से मिले हों हाथ अधूरा हो साथ जब   समां के तन मन में रची बसी है  जानकी  प्यास की पिपासा एक बाँध लेती आस मेरी  वो जलधि जल जंगल रमा जाता है सारथि  तन की तपन की  बयार झूम जाती है  छुवन है रजकण सौम्यता पुकारती  मनों से मिले हैं मन देह की सुगंध सब  समां के तन मन में रची बसी है जानकी  साथ हो सफर सदा बाँध लेती आस मेरी वो प्रणय प्रेम ज्ञान बांटता है सारथि  मन में मिलन की तड़फ उठ जाती है  त्याग है प्रेमधन  मौनमयी समझाती प्राणों से मिले हैं प्राण सांसो की डोर सब  समां के तन मन में रची बसी है जानकी 

सब मान मेरी

 मैं वहीं शुभ रात्रि का सन्देश देता  वो जहाँ पर रात को थे रात कहते  तौर बदलें हैं उन्होंने मान मेरी  सो करके जगता है वो अब सब मान मेरी  मैं वहीं नजरों को उठने पर छुपता  वो जहाँ पर मोड़ते थे चाल अपनी  वह कदम ठिठके लगे सम्मान मेरी  मुड़के वापस आ गया वो अब सब मान मेरी मैं वहीं बातों को अधूरा रोक देता  वो जहाँ पर फेर लेते थे होंठ अपने  साँस रख दी साँस में वो शान मेरी  कर गया सारा समर्पण अब सब मान मेरी मैं इसी जीवन उन्ही  राहों मिलूंगा  वो जहाँ गर छोड़ना कर्त्तव्य आगे  जो मिला सर्वस्व बढ़कर आन मेरी  कर गया माथे तिलक अब सब मान मेरी मैं रहूँगा यूँ ऋणी उस आत्ममन  पर  हो अधूरा ही सही हर साथ तेरा  वो  बसा है मन लिए अभिमान मेरी  खो करके अपना चैन तू पहचान मेरी